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१०) जैन दर्शन के मौलिक तत्व के ही कर्म बन्धते हैं उन दोनों का अपश्चानुपूर्वी (न पहले और न पीचे) रूप से अनादिकालीन सम्बन्ध चला आरहा है।
अमूर्त शान पर मूर्त मादक द्रव्यों का असर होता है, वह अमूर्त के साथ मूर्च का सम्बन्ध हुए बिना नहीं हो सकता। इससे जाना जाता है कि विकारी अमूर्त प्रात्मा के साथ मूर्त का सम्बन्ध होने में कोई आपत्ति नहीं पाती। . बन्ध के हेतु
कम-सम्बन्ध के अनुकूल आत्मा की परिणति या योग्यता ही बन्ध का हेतु है । बन्ध के हेतुओं का निरूपण अनेक रूपों में हुआ है।
गौतम ने पूछा' -भगवन् ! जीव कांक्षा मोहनीय कर्म बांधता है ? भगवान् गौतम ! बांधता है। गौतम-भगवन् ! वह किन कारणों से बांधता है ? भगवान्–गौतम ! उसके दो हेतु हैं (१) प्रमाद, (२) योग । गौतम-भगवन् ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ? भगवान्-योग से। गौतम-योग किससे उत्पन्न होता है ? भगवान्-वीर्य से। गौतम-वीर्य किससे उत्पन्न होता है ? भगवान्-शरीर से। गौतम---शरीर किससे उत्पन्न होता है ? भगवान्-जीव से।
तात्पर्य यह है कि जीव शरीर का निर्माता है। क्रियात्मक वीर्य का साधन शरीर है। शरीरधारी जीव ही प्रमाद और योग के द्वारा कर्म (कक्षामोहनीय ) का बन्ध करता है। स्थानांग और प्रशापना में कर्मबन्ध के क्रोध, मान, माया और लोम-ये चार कारण बतलाए है।। बन्ध
"स्थि बन्धे व मोक्खे वा णेवं सन्नं निवेसए।
अस्थि बन्धे व मोक्खे वा एवं सन्नं निवेसए ॥ -सूत्र. रा॥ माकंदिक-पुत्र ने पूछा- भगवन् ! भाव बन्ध कितनी प्रकार का है?"