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जैन दर्शन के मौलिक तत्व 1900 बन्ध की अपेक्षा जीव और पुद्गल अमिन्न है-एकमेक है। लक्षण की अपेक्षा वे भिन्न हैं। जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन, जीव अमूर्त है और पुद्गल मूर्त।
इन्द्रिय के विषय स्पर्श आदि मूर्त हैं। उनको भोगने वाली इन्द्रिया मूर्त हैं। उनसे होने वाला सुख-दुःख मूर्त है। इसलिए उनके कारण-भूत कर्म भी मूर्त है । ___ मूर्त ही मूर्त को स्पर्श करता है। मूर्त ही मूर्त से बंधता है। अमूर्त जीव मूर्त कमों को अवकाश देता है। वह उन कर्मों से अवकाश-रूप हो जाता है। ___ गीता, उपनिषद् आदि में अच्छे-बुरे कार्यों को जैसे कर्म कहा है, वैसे जैन-दर्शन में कर्म-शब्द क्रिया का वाचक नहीं है। उसके अनुसार वह (कर्मशब्द ) आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है । ___आत्मा की प्रत्येक सूक्ष्म और स्थूल मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के द्वारा उसका आकर्षण होता है। इसके बाद स्वीकरण ( आत्मीकरणप्रदेशबन्ध-जीव और कम-परमाणुत्रों का एकी भाव ) होता है।
कर्म के हेतुओं को भाव-कर्म या मल और कर्म-पुद्गलों को द्रव्य-कर्म या रज कहा जाता है। इनमें निमित्त नैमित्तिक भाव है। भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म का संग्रह और द्रव्य-कर्म के उदय से भाव-कर्म तीव्र होता है । आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कैसे ? ___आत्मा अमूर्त है, तब उसका मूर्त कर्म से सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? यह भी कोई जटिल समस्या नहीं है। प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है। वह अनादिकाल से ही कर्मबद्ध और विकारी है । कर्मबद्ध आत्माएं कथंचित् मूर्त है अर्थात् निश्चय दृष्टि के अनुसार स्वरूपतः अमूर्त होते हुए भी वे संसार दशा में मूर्त होती हैं । जीव दो प्रकार के है-रूपी और अरूपी "१ मुक्त जीव अरूपी हैं और संसारी जीव रूपी।
कममुक्त आत्मा के फिर कभी कर्म का बन्ध नहीं होता। कर्मबद्ध आत्मा