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________________ १०६) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं परिस्थितिबाद के एकान्त-अाग्रह के प्रति जैन-दृष्टि यह है-रोग देश-काल की स्थिति से ही पैदा नहीं होता, किन्तु देश-काल की स्थिति से कर्म की उत्तेजना (उदीरणा ) होती है और उत्तेजित कर्म-पुद्गल रोग पैदा करते हैं । इस प्रकार जितनी भी बाहरी परिस्थितियां हैं, वे सब कर्म-पुद्गलों में उत्तेजना लाती है। उत्तेजित कर्म-पुद्गल आत्मा में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन लात हैं। परिवर्तन पदार्थ का स्वभाव सिद्ध धर्म है। वह संयोग-कृत होता है, तब विभाव-रूप होता है। दूसरे के संयोग से नहीं होता. तब उसकी परिणति स्वाभाविक हो जाती है। कर्म की पौद्गलिकता अन्य दर्शन कर्म को जहाँ संस्कार या वासना रूप मानते हैं, वहाँ जैनदर्शन उसे पौद्गलिक मानता है । "जिस वस्तु का जो गुण होता है, वह उसका विघातक नहीं बनता।' आत्मा का गुण उसके लिए आवरण पारतन्त्र्य और दुःख का हेतु कैसे बने ? कम जीवात्मा के आवरण, पारतन्त्र्य और दुःखों का हेतु है-गुणों का विघातक है। इसलिए वह आत्मा का गुण नहीं हो सकता। बेड़ी से मनुष्य बन्धता है, सुरापान से पागल बनता है, क्लोरोफार्म से बेभान बनता है। ये सब पौद्गलक वस्तुएं हैं। ठीक इमी प्रकार कर्म के संयोग से भी आत्मा की ये दशाएं बनती हैं। इसलिए वह भी पौद्गलिक है । ये बेड़ी श्रादि बाहरी बन्धन एवं अल्प सामर्थ्य वाली वस्तुए हैं। कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए तथा अधिक सामर्थ्य वाले सूक्ष्म स्कन्ध हैं । इसीलिए उनकी अपेक्षा कर्म-परमाणुओं का जीवात्मा पर गहरा और आन्तरिक प्रभाव पड़ता है। . शरीर पोद्गलिक है, उसका कारण कर्म है। इसलिए वह भी पौद्गलिक है। पौद्गलिक कार्य का समवायी कारण पौद्गलिक होता है । मिही भौतिक है तो उससे बनने वाला पदार्थ भौतिक ही होगा। आहार आदि अनुकूल सामग्री से सुखानुभूति और शस्त्र प्रहार आदि से दुःखानुभूति होती है। श्राहार और.शस्त्र पौदगलिक है, इसी मकार सुख-दुःख के हेभूतुत कर्म भी पौद्गलिक है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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