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जैन-भक्तिकाब्यकी पृष्ठभूमि कहते हैं, और ऐसी सिद्धि करनेवाला हो सिद्ध कहलाता है। पं० आशाधरने 'सिद्ध'को व्युत्पत्ति करते हुए कहा है, "सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः संजाता यस्येति सिद्धः", अर्थात् स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धि जिसको प्राप्त हो गयी है, वह ही सिद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्दका 'परिसमाप्तकार्य' इसो स्वात्मोपलब्धिरूप कार्यको पूरा करनेकी बात कहता है। आचार्य यतिवृषभने भी 'अट्टविहकम्मवियला'से आठ कर्मोके क्षय होने, और 'णिट्टियकज्जा'से स्वात्मोपलब्धिरूप कार्यको पूरा करनेका ही निर्देश किया है। श्रीयोगीन्दुने भी शुक्ल ध्यानसे अष्टकर्मोका नाश करके मोक्ष-पद पानेवालेको हो सिद्ध कहा है। उन्होंने शुद्ध स्वात्मा और मोक्षमें स्थित रहनेवाले सिद्ध में यत्किञ्चित् भी भेद नहीं माना । अतः वे भी स्वा
१. सिद्धानुद्धतकर्मप्रकृतिसमुदयान्साधितात्मस्वभावान
वन्दे सिद्धिप्रसिद्धथै सदनुपमगुणप्रग्रहाकृष्टितुष्टः । सिद्धिः स्वास्मोपलब्धिः प्रगुणगुणगणोच्छादिदोषापहाराद् योग्योपादानयुक्त्या दृषद इह यथा हेमभावोपलब्धिः ॥ देखिए वही : आचार्य पूज्यपाद, सिद्धमक्ति : पहला श्लोक पृ० २७ । पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम : स्वोपज्ञवृत्ति और श्रुतसागर सूरिकी टीका सहित, पं० हीरालाल जैन सम्पादित, हिन्दी-भाषा अनूदित, भारतीय
ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०१०, १०।१३९ की स्वोपज्ञवृत्ति,पृ० १३९ । ३. अट्टविहकम्मवियला णिट्रियकज्जा पण?संसारा ।
दिट्ठसयलस्थसारा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ आचार्य यतिवृषम, तिलोयपण्णत्ति : पहला भाग, डॉ० ए० एन० उपाध्ये और डॉ. हीरालाल जैन सम्पादित, पं० बालचन्द्र हिन्दी अनूदित, जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ, शोलापुर, जीवराजग्रन्थमाला, १९४३ ई०, पहला
श्लोक । ४. झाणे कम्म-क्खउ करिवि मुक्कउ होइ अणंतु । जिणवरदेवइँ सो जि जिय पमणिउ सिद्ध महंतु ॥ श्री योगीन्दु, परमात्मप्रकाश : श्री ब्रह्मदेवकी संस्कृत वृत्ति और पं० दौलतरामकी हिन्दी-टीका युक्त, श्री ए० एन० उपाध्याय सम्पादित, परमश्रुतप्रभावकमण्डल, बम्बई, नयी आवृत्ति, १९३७ ई०, २।२०१, पृष्ठ
३३८ । ५. जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिदिहि णिवसह देउ ।
तेहउ णिवसइ बंभु परु देहह मं करि भेउ ॥ देखिए वही : १२६, पृ० ३३ ।