________________
RANAMAH
AJANSAMwidesprak
जैन-मक्तिके भेद
स्मोपलब्धि और सिद्धिको एक ही स्वीकार करते हैं ।
सिद्ध निराकार होते है। श्री योगीन्दुने उन्हें, 'निष्कल' कहा है। निष्कलकी व्याख्या करते हुए श्री ब्रह्मदेवने 'निष्कलः पञ्चविधशरीररहितः', लिखा है। अर्थात् औदयिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्माण शरीर जिसके नहीं हैं, वह निराकार परमात्मा कहलाता है। तत्त्वसारदूहामें भी सिद्धको अशरीरी कहा है । किन्तु उसीमें सिद्धके लिए 'साकार' और 'निराकार' दोनों ही विशेषणोंका प्रयोग हुआ है। यहां साकारका अर्थ है-अनन्त गुणोंसे युक्त और निराकारसे तात्पर्य है स्पर्श, गन्ध, वर्ण और रससे रहित । आचार्योने सिटके अनन्त गुणोंको सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मता, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्यायाध नाम के आठ भागोंमें बाँट दिया है।
सिद्ध जीव लोकाग्रशिखरके ऊपर रहते हैं। उसीको किसीने मोक्ष, किसीने सिद्धशिला और किसीने सिद्धपुरी कहा है। आचार्य कुन्दकुन्दने उसको 'लोयगणिवासिणो', श्री योगीन्दुने "णिव्वाणि वसंति'५ श्री नेमिचन्द्राचार्यने 'लोयसिह
१. एयहि जुत्तउ लक्खणहिँ जो परु णिक्कलु देउ ।
सो तहि णिवसइ परम-पइ जो तइलोयहँ भेउ ॥
देखिए वही : १।२५, ब्रह्मदेवकी संस्कृत टीकासहित, पृ० ३२ । २. औदारिक-बैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्मणानि शरीराणि ॥
उमास्वाति, तस्वार्थसूत्र : पं० कैलाशचन्द्र सम्पादित, चौरासी,मथुरा, वीर
नि० सं० २४७७, २॥३६, पृ० ५४ । ३. असरीरा जीवघणा उवजुसा दसणे य णाणे य ।
सायारमणायारो लक्षणमयं तु सिद्धाणं ॥ तत्त्वसार : ब्र. शीतलप्रसादजी कृत हिन्दी टीकासहित, दिगम्बर जैन
पुस्तकालय, सूरत, ७२वा दोहा। ४४. संमत्तणाणदंसणवीरियसुहमं तहेव अवगहणं ।
अगुरुलहुमब्वाबाहं अटगुणा होति सिखाणं ॥
दशमति : शोलापुर, १९२१ ई०, आचार्य कुन्दकुन्द, सिद्धमक्तिः पृष्ठ ६९ । ५. अट्टगुणाः किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥
दशक्ति: शोलापुर, १९२१ ई०, कुन्दकुन्द, सिद्धमक्ति :पृ० ६७ । ६. ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे णिवाणि घसंति ।
णाणिं तिहुयणि गरुया वि भवसायरि ण पडंति ॥ योगीन्दु, परमात्मप्रकाश : श्री ए० एन० उपाध्याय सम्पादित, परमभुतप्रभावकमण्डल, बम्बई, १९३७, १४, पृ० १०।