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जैन मक्तिके भेद
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लिखी हुई संस्कृत टीका उपलब्ध है । कहा जाता है कि चैत्यभक्तिकी रचना गौतमस्वामीने की थी', जो तीर्थंकर महावीर के प्रमुख गणधर थे । उनका समय विक्रमसे चार सौ सत्तर वर्ष पूर्व माना जाता है ।
१. सिद्धभक्ति
'सिद्ध' का स्वरूप
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आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा है, "आठ कर्मोंसे रहित, आठ गुणोंसे युक्त, परिसमाप्तकार्य और मोक्षमें विराजमान जीव सिद्ध कहलाते हैं । आठ कर्मोंका नाश किये बिना तो कोई भी सिद्धपद नहीं पा सकता । आचार्य पूज्यपादका कथन है कि आठ कर्मों के नाशसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है, उसे ही सिद्धि
१. "श्रीवर्धमानस्वामिनं प्रत्यक्षीकृत्य गौतमस्वामी जयति भगवानित्यादि स्तुतिमाह"
देखिए, चैत्यभक्तिका प्रारम्भ : श्रीप्रमाचन्द्राचार्यकृत, 'दश-भक्ति', शोलापुर, सन् १९२१ ई०, पृ० २९४ |
भौर
ततश्च जयति भगवान् इत्यादि नमस्कारं कृत्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा कच - लोचनान्तरमेव चतुर्ज्ञानसप्तर्द्विसम्पत्रास्त्रयोऽपि ( गौतम - श्रग्निभूतवायुभूतनामान: ) गणधरदेवाः संजाताः । गौतमस्वामी भन्योपकारार्थ द्वादशाङ्गश्रुतरचनां कृतवान् ।
देखिए, नेमिचन्द्राचार्य, बृहद्रव्यसंग्रह : कुमार देवेन्द्रप्रसादजीकी अँगरेजी टीका और प्रस्तावनासहित, आरा, ४१वीं गाथाकी ब्रह्मदेव ( १३वीं शती ईसवी ) की संस्कृत टीका ।
२. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश : वीरसेवा मन्दिर, सरसावा, सहारनपुर, जुलाई १९५६, पृ० ३९-४० । ३. भट्टविहकम्ममुक्के अट्टगुण अणो मे सिद्धे ।
अट्टम पुढविणिविट्टे गिट्टियकज्जे य बंदिमो णिचं ॥
Crafts: प्रभाचन्द्रा हाचार्यकी संस्कृत टीकासहित, पं० जिनदास पार्श्वनाथ के मराठी अनुवाद युक्त, तात्या गोपाल शेटे प्रकाशित, शोलापुर १९२१ ई०, आचार्य कुन्दकुन्द, सिद्धभक्ति : पहली गाथा पृ० ४६ ।