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जैन-भक्तिके भेद जैनाचार्योंने भक्तिके बारह भेद स्वीकार किये हैं । वे इस प्रकार हैंसिदभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगभक्ति, आचार्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, तीर्थकरभक्ति, शान्तिभक्ति, समाधिभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति और चैत्यभक्ति ।' तीर्थंकर और समाधिभक्तिका पाठन एक-दो अवसरोंपर ही होता है, अतः उनका अन्य भक्तियोंमें अन्तभाव मान लिया गया है। इस भांति दश-भक्तियोंकी ही मान्यता है ।
इन भक्तियोंकी रचना आचार्य कुन्दकुन्द ( विक्रमको पहली शताब्दी ) ने प्राकृत भाषामें और आचार्य पूज्यपाद (विक्रमको छठी शताब्दी) ने संस्कृत भाषामें की है। सभोपर आचार्य प्रभाचन्द्र ( विक्रमकी दसवीं शताब्दी ) की
१. 'दशभक्तिः' नामके ग्रन्थमें; इन भक्तियोंका संकलन हुआ है। यह ग्रन्थ
सन् १९२१ में शोलापुरसे प्रकाशित हो चुका है। इसमें आचार्य प्रमाचन्द्रकी संस्कृत टीका और पं० जिनदास पार्श्वनाथका मराठी अनुवाद मी दिया गया है।
और 'दशमक्त्यादिसंग्रहः' नामका दूसरा ग्रन्थ : श्रीसिद्धसेन जैन गोयलीयके सम्पादन में, सलाल ( साबरकांठा ), गुजरातसे, वीर निर्वाण संवत् २४८१ में प्रकाशित हुआ है। इसमें आचार्य पूज्यपादकी संस्कृत-मक्तियों
का सान्वय हिन्दी-अनुवाद दिया है। २. या दोन भक्तींचा एक दोन क्रिये मध्ये च उपयोग होतो यास्तव अंथका
रानी या दोन भक्तींचा वर सांगितलेल्या भक्ती मध्ये च अंतर्भाव करून 'दशभक्ति' है ग्रन्थाचे नांव ठेविले अहि । देखिए दश-भक्ति : शोलापुर, सन् १९२१ ई०, जिनदास पार्श्वनाथ
कृत प्रस्तावना, पृ० १। ३. "संस्कृताः सर्वा मक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्य
कृताः।" देखिए, प्राकृतसिद्धमक्ति : संस्कृत टीका ( प्रमाचन्द्राचार्यकृत), दशमक्ति : शोलापुर, सन् १९२१ ई०, पृ० ६१ ।