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जैन - भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि
भारतका सबसे प्राचीन मन्दिर, कङ्काली टीलेकी खुदाइयोंमें प्राप्त मथुराका जैन मन्दिर है । यह ईसासे १५० वर्ष पूर्व बना था। जैनोंमें भी चलते-फिरते रथोंका प्रचलन रहा होगा, तभी तो उसके अनुकरणपर, ठीक वैसे ही मन्दिरका निर्माण हो सका ।
मन्दिर बनने के बाद भी 'Temple-car' की स्मृतिमें रथ यात्रा महोत्सव मनाये जाते रहे । सम्राट् खारवेल ( दूसरी शताब्दी पूर्व ईसवी) नन्दोंके द्वारा ले जायी गयी 'कलिंग-जिन' की मूर्तिको जोतकर वापस लाया । वह वापसी - की यात्रा रथ यात्रा ही थी । भगवान्की मूर्तिको रथमें प्रतिष्ठित किया और नृत्य-गायन आदिके साथ कलिंग तकका मार्ग हर्षोल्लास में बोता । उस मूर्ति - को विद्याधरोंसे कोरे गये और आकाशको छूनेवाले एक मन्दिर में स्थापित किया गया था ।
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9. Prof V. A. Smith, the Jain stupa and other antiquities of Mathura, Introduction, p. 3.
२. Prof. V. A. Smith, Early History of India, Oxford, 1908, p. 38, N. 1, श्री एन. एन. घोषने खारवेलका जन्माभिषेक १९ वर्ष, ईसवी पूर्व माना है 1
देखिए जैनसिद्धान्तभास्कर : भाग १६, किरण २ ( दिसम्बर १९४९ ),
पृ० १४२ ।
३. नन्दराज नीतानि अग जिनस वसवु नेयाति ।
"नग मह रतन पडिहारेहि अंग मागधे हाथीगुम्फ शिलालेख : १२वीं पंक्ति, देखिए प्रोफ़ेसर खुशालचन्द जैन, कलिंगाधिपति खारवेल : जैनसिद्धान्त भास्कर, भाग १६, किरण २, दिस० १९४९, पृ० १३४ ॥
श्रौर
Dr. Boolchand Jain, Jainism in Kalingadesa, Jain cultural Research Society, Banaras Hindu University, Bulle tin No. 7, p. 10.
४. पं. सुमेरचन्द जैन, सम्राट् खारवेल : दिल्ली, पृष्ठ २८ ।
५. विजाधक लेखिलं वर्णन सिहरानि निवेसयति सतवस दान परिहारेन अभूतम करियं च हथी नादात परिहार आहारापयति इधं सतस । हाथीगुम्फशिलालेख : १३वीं पंक्ति, पं. सुमेरचन्द, सम्राट् खारवेल: दिल्ली, पृष्ठ ४८पर निबद्ध, हिन्दी अनुवादसहित |