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जैन-मक्तिके अंग
मणमारविणासहो सिवपुरिवासहो पावतिमिरहरदिणयरहो।
परमप्पयलीणहो विलयविहीणहो सरमि चरणु सिरि जिणवरहो।' भगवज्जिनसेनाचार्य ( वि० ९वीं शताब्दी ) ने अपने महापुराणके प्रारम्भिक १८ श्लोकोंमें मंगलाचरण किया है । पहला श्लोक देखिए
श्रीमते सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुषे ।
धर्मचक्रभृते भत्रे नमः संसारभीमुषे ॥ श्री नेमिचन्द्राचार्य (वि. ११वीं शताब्दी ) ने गोम्मट्टसार कर्मकाण्डका प्रारम्भ भगवान नेमिनाथ के नमस्कारसे किया है
पणमिय सिरसा णेमि गुणरयणविभूसणं महावीरं । सम्मत्तरयणणिलयं पयडिसमुकित्तणं वोच्छं ॥
७. महोत्सव नृत्य, गायन, वादन, नाटक, रास और रथ-यात्रा आदि सब कुछ भक्तके भावोंको अभिव्यक्ति है। आराध्यके गुणोंपर रीझे भाव जब बाहर निकलना चाहते हैं, तो वे ऐसे ही कतिपय मार्गोका सहारा लेते हैं। प्राचीन जैन-भक्तोंके भावोंका प्रस्फुटन इन रूपोंमें भी हुआ है । ' १. कामदेवका विनाश करनेवाले, शिवपुरीमें रहनेवाले पापरूपी अन्धकारके
लिए सूर्यके समान, परमात्म-पदमें लीन और मौतको जीतनेवाले श्री जिनेन्द्र मगवान्के चरणोंका मैं सदैव स्मरण करता हूँ। कनकामर, करकंदुचरिउ : डॉ. हीरालाल जैन सम्पादित, जैन पब्लिकेशन सोसाइटी, कारंजा, वि० सं० १९९१, पहले स्तवककी दो पंक्तियाँ। जो अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंग और अष्टप्रातिहार्यरूप बहिरंग लक्ष्मीसे युक्त हैं, जिन्होंने समस्त पदार्थों को जाननेवाले केवलज्ञानरूपी साम्राज्यका पद प्राप्त कर लिया है, जो धर्मचक्रके धारक हैं, लोकत्रयके अधिपति हैं
और संसारका भय नष्ट करनेवाले हैं, ऐसे श्री अर्हन्तदेवको हमारा नमस्कार है। भगवजिनसेनाचार्य, आदिपुराण : प्रथम भाग, पं० पन्नालाल सम्पादित,
हिन्दी अनूदित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि०सं० २००७, पहला श्लोक। ३. गुणरूपी रत्नोंसे विभूषित, शक्तिशाली, सम्यक्त्वरूपी रत्नके निलय,
भगवान् नेमिनाथको सिरसे प्रणाम करके मैं, कोंकी प्रकृति कहूँगा। नेमिचन्द्राचार्य, गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड : श्री जुगमन्दरलाल जैनो सम्पादित, अजिताश्रम लखनऊ, सन् १९२७, पहली गाथा ।