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जैन- भक्तिकाव्यको पृष्ठभूमि
उपचार - विनय
अपने से बड़ोंके प्रति मन-वचन-कायसे विनम्र भाव दिखाना उपचार - विनय है । यह विनय केवल प्रत्यक्षमें ही नहीं, अपितु परोक्षमें भी की जानी चाहिए । आचार्य पूज्यपादने आचार्य उमास्वातिके उपचार विनयेको व्याख्या करते हुए लिखा है, "प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वाभ्युत्थानाभिगमनाञ्जलिकरणादिरुवचारविनयः । परोक्षेष्वपि कायवाङ्मनोभिरञ्जलिक्रियागुणस कीर्तनानुस्मरणादिः । ' अर्थात् आचार्य आदिके समक्ष आनेपर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचार - विनय है । आचार्य वसुनन्दिने मन, वचन और कायके भेदसे उपचार- विनयको तीन प्रकारका माना है । वे तीनों प्रकार भी प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । आचार्यने इन भेदोंको स्पष्ट करनेके लिए छह गाथाओंका निर्माण किया है, जिनका तात्पर्य है कि अपने से बड़ोंकी मन-वचनकासे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही रूपोंमें अभ्यर्थना करना उपचार - विनय है । आचार्य श्रुतसागरसूरिने भी कहा है, "आचार्योपाध्यायादिषु अध्यक्षेषु अभ्युस्थानं, वन्दना -विधानं करकुड्मलीकरणं, तेषु परोक्षेषु सत्सु कायवाङ्मनोभिः करयोटनं गुणसंकीर्त्तनं अनुस्मरणं स्वयं ज्ञानानुष्ठायित्वञ्च उपचारविनयः ।' इसका अर्थ है, "आचार्य, उपाध्याय आदिको देखकर खड़े हो जाना, नमस्कार करना तथा उनके परोक्षमें परोक्ष-विनय करना, और उनके गुणोंका स्मरण करना आदि उपचार - विनय है ।'
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१. 'ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ' उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र : पं० कैलाशचन्द्र सम्पादित, चौरासी, ९ २३, पृ० २१५ ।
२. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि पं० फूलचन्द्र सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि. सं. २०१२, पृ० ४४२ ।
३ उवयारिओ वि विणओ मण-वचि कारण होइ तिविथप्यो ।
सो पुण दुविहो मणिश्रो पच्चक्ख-परोक्खभेएण ॥
आचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दि-श्रावकाचार : पं० हीरालाल सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ३२५वीं गाथा, पृ० ११४ |
४. देखिए वही : गाथा ३२६-३१, पृ० ११४-१५ ।
५. आचार्य श्रुत सागरसूरि, तस्वार्थवृत्ति हिन्दी अनुवाद सहित, पं० महेन्द्रकुमार सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, बि. सं० २००५, पृ०
३०४।
६. देखिए वही : हिन्दी अनुवाद, पृ०४९५ ।