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जैन-मक्केि
अंग
विनयका फल
"विनयसे पुरुष शशाङ्कके समान उज्ज्वल यशःसमूहसे दिगन्तको धवलित करता है । विनयसे वह सर्वत्र सुभग अर्थात् सब जगह सबका प्रिय होता है और तथैव आदेयवचन होता है, अर्थात् उसके वचन सब जगह आदरपूर्वक ग्रहण किये जाते हैं । इस लोक और परलोकमें सुख देनेवाले उपदेश, गुरुजनोंकी विनयसे ही उपलब्ध होते हैं। संसारमें देवेन्द्र, चक्रवर्ती और माण्डलिक राजा आदिको जो सुख प्राप्त है, वह सब विनयका ही फल है । और इसी प्रकार मोक्षका सुख पाना भी विनयका ही परिणाम है । जब साधारण विद्या भी विनयरहित पुरुषके सिद्धिको प्राप्त नहीं होती है, तो फिर मुक्तिको प्राप्त करनेवालो विद्या, विनय-विहीन पुरुषके सिद्ध हो सकती है ? अर्थात् कभी नहीं हो सकती।" ___आचार्य श्रुतसागरने तस्वार्थवृत्तिमें लिखा है : “विनयके होनेपर ज्ञान-लाभ, आहारविशुद्धि और सम्यगाराधना आदि होती है।"
६. मंगल व्युत्पत्ति
मङ्गल शब्दको व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य यतिवृषभने तिलोयपण्णत्तिमें लिखा है, "जो मलोंको गलाता है, विनष्ट करता है, घातता है, दहन करता है, हनता है, शुद्ध करता है और विध्वंस करता है, उसे मंगल कहते हैं ।" आचार्य
१. प्राचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दि-श्रावकाचार : पं० हीरालाल सम्पादित, मार
तीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००५, गाथा ३३२-३३५, पृष्ठ
११५-१६. २. 'विनये सति ज्ञानलामो भवति, आचारविश्रुबिच सजायते, सम्यगारा
धनादिकम्च पुमल्लिमते ।' आचार्य श्रुतसागरसूरि, तरवार्थवृत्ति : पं० महेन्द्रकुमार सम्पादित, मारतीय
ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००५, पृष्ठ ३०४ । ३. गालयदि विणासयदे घादेदि दहेदि हंति सोधयदे । विसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं मणिदं ॥ आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति : प्रथम भाग, डॉ० ए० एन० उपाध्ये और डॉ. हीरालाल जैन सम्पादित, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, १९४३, ११९ ।