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जैन-भक्तिके अंग . होगी ही नहीं, और सच्ची विनयके साथ श्रद्धा होगी ही। जैन साहित्यकारोंने दर्शनमें श्रद्धा करनेको हो दर्शन-विनय कहा है, और दर्शनका अर्थ है भगवान्की दिव्य-ध्वनिमें खिरे सात तत्त्वोंका' साक्षात्कार करना। इस भांति आचार्य पूज्यपादको दृष्टिमें 'शङ्कादिदोषरहितं तत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शन-विनयः' है। इसका अर्थ है कि शंकादि दोषोंसे रहित, तत्त्वार्थ-श्रद्धानको दर्शन-विनय कहते हैं। तत्त्वार्थका श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है, जिससे मोक्ष मिलता है, और तत्त्वार्थका श्रद्धान ही दर्शन-विनय है, फिर वह भी मोक्ष-प्रदाता माना जायेगा। चारित्र-विनय - आचार्य वसुनन्दिने लिखा है, "परमागममें पाँच प्रकारका चारित्र, और इसके जो अधिकारी या धारण करनेवाले वर्णन किये गये हैं, उनके आदर-सत्कारको चारित्र-विनय जानना चाहिए।" अर्थात् चारित्र-विनय केवल पांच प्रकारके चरित्रकी नहीं, किन्तु चारित्रवानोंकी भी विनय है । चारित्रवानोंमें तीर्थकरसे लेकर चारित्रधारी महापुरुष तक सभी आ जाते हैं। यह विनय ही श्रद्धाकी तीव्रतासे भक्तिका रूप धारण कर लेती है। भक्ति तल्लीनता है और तल्लीनतामें तन्मयता होती है, तभी तो चारित्रवान्में तल्लीन होनेसे हम तन्मय हो जाते हैं, अर्थात् वैसे ही चारित्रके धारक बन जाते हैं ।
१. जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष सात सत्त्व होते हैं ।
देखिए, 'जीवाजीवात्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तरवम्' उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र : पं. कैलाशचन्द्र सम्पादित, चौरासी, मथुरा, १४,
पृ० ५। २. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : पं० फूलचन्द्र सम्पादित, मारतीय ज्ञान
पीठ, काशी, वि. सं. २०१२, पृष्ठ ४४२ । ३. 'तरवार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र : पं० सुखलाल
संघवी सम्पादित, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, काशी, सन् १९५२,द्वितीय
संस्करण, १२, पृष्ठ ५।। ४. पंचविहं चारित्तं अहियारा ने य वणिया तस्स ।
जंतेसिं बहमाणं वियाण चारित विणओ सो॥ आचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार : पं० हीरालाल सम्पादित, मारतीय ज्ञानपीठ, काशी, अप्रैल १९५२, गाथा ३२३वीं, पृष्ठ ११४ ।