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जैन-मकिकाम्यकी पृभूमि
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५. विनय विनयकी परिभाषा
"विनय' वि और नयसे मिलकर बना है, जिसका अर्थ है विशेष रूपसे झुकना आराध्यकी महानतासे प्रभावित हो भक्तका झुक-झुक जाना ही विनय है। इस झुकने में न तो स्वार्थ है और न दबावजनित विवशता । स्वार्थके लिए झुकना विनय नहीं खुशामद है और किसीके दबावमें आकर झुकना कायरता है। विनय सात्त्विकताका भाव है, जब कि खुशामदमें स्वार्थ-जनित राजसिकता रहती है। विनय स्वयं उत्पन्न होती है, और वह विनय-कर्ताके पवित्र हृदयकी प्रतीक है। पवित्र हृदय ही दूसरोंके गुणोंपर मुग्ध हो सकता है ।
जैनोंकी ज्ञान-विनय ___ आचार्य उमास्वातिके 'ज्ञानदर्शनचारित्रोपचार:' की व्याख्या करते हुए. आचार्य पूज्यपादने कहा है, "सबहुमानं मोक्षार्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञान-विनयः ।" इसका अर्थ है कि बहुत आदरके साथ ज्ञानका ग्रहण करना, अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञान-विनय है। आचार्य वसुनन्दिका भी कथन है, "ज्ञानमें, ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदिकमें, तथा ज्ञानवन्त पुरुषमें भक्तिके साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञान-विनय है।" तात्पर्य यह है कि ज्ञान-विनय, ज्ञानकी भक्ति है, और उस भक्तिसे ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है। दर्शन-विनय
विनय और श्रद्धाका घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब-तक श्रद्धा न होगी, विनय
१. उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र : पं० कैलाशचन्द्र सम्पादित, भारतवर्षीय दिगम्बर
जैन संघ, चौरासी, मथुरा, वीर निर्वाणसंवत् फाल्गुन २४७७, ९।२३,
पृ. २१५। २. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : पं० फूलचन्द्र सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ,
काशी, वि० सं० २०१२, पृ० ४४१ । ३. णाणे णाणुवयरणे य णाणवंतम्मि तह य मत्तीए ।
जं पडियरणं कीरइ णिश्चं तं गाणविणओ हु॥ ३२२ ॥ आचार्य वसुनन्दि, श्रावकाचार : पं. हीरालाल सम्पादित, काशी, पृ०११४ ।