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जैन-भक्तिके अंग
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श्री जिनदत्तसूरिने 'चैत्यवन्दन कुलक' की रचना प्राकृतकी २८ गाथाओंमें की थी श्री जिनप्रभसूरिके 'वन्दनस्थानविवरण' में प्राकृतकी १५० गाथाएँ । श्री शान्तिसूरिका 'चेइयवन्दण महाभासं' भी वन्दनाका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। श्रुत-साहित्य में वन्दनाका स्थान
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भगवान् महावीरका मूल श्रुत दो भागों में विभक्त था - अंगश्रुत [ अंगप्रविष्ट ] और अनंगश्रुत [ अंगबाह्य ] | अंगश्रुतके बारह और अनंगश्रुतके अनेक भेद किये गये थे । वन्दनाका अनंगश्रुतके अनेक भेदोंमें तीसरा स्थान है । श्वेताम्बर परम्परा अनुसार यह अंग अभीतक मौजूद हैं । दिगम्बरोंका मत है कि ये सभी अंग भगवान् महावोरके निर्वाणके उपरान्त ६८३ वर्षतक जीवित रहे और फिर लुप्त हो गये ।
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१. यह ग्रन्थ, श्री जिनकुशलसूरिकी वृत्ति [ ४४०० श्लोकप्रमाण ] और श्री sofairs संक्षिप्त टिप्पणके साथ, जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत से, वि० सं० १९८३ में प्रकाशित हो चुका है ।
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Jina Ratna Kosa, Vol. I. H. D. Velankar Edited, Oriental Research Institute Poona, 1944, P. 341.
३. यह ग्रन्थ, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगरसे वि० सं० १९७७ में प्रकाशित हो चुका है ।
४. श्रुतं मतिपूर्वं द्वि- अनेकद्वादशभेदम् ।'
देखिए उमास्वाति, तत्त्वार्थ सूत्र : पं० सुखलाल संघवी सम्पादित, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, बनारस, १९५२ ई०, १२०, पृ० ३४ । अंगभुतके बारह भेद -- आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपादिक दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, दृष्टिवाद ।
महाकलंक, तस्वार्थवार्त्तिक : पं० महेन्द्रकुमार सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, जनवरी १९५३, ११२०, पृ० ७२ ।
अंगबाह्य के मुख्य भेद - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान [ छह आवश्यक ], दशबैकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कंध, कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित आदि शास्त्र । तत्वार्थ सूत्र : पं० सुखलाल सम्पादित, बनारस, पृ० ३७ ।
सर्वार्थसिद्धि : पं० फूलचन्द्र सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०१२, प्रस्तावना, पृ० १३ ।
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