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जैन-भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि को वन्दनाको चैत्यवन्दन कहते हैं । यत्र-तत्र कहींपर भी जिन-बिम्बकी कल्पना करके जो पूजा आदि की जाती है, वह भी चैत्य-वन्दन ही समझना चाहिए। जिन-बिम्बके अभावमें गुरुको ही 'जिन'का साक्षी मानकर नमस्कारादि करना भी चैत्य-वन्दन है। जिस प्रकार मूर्ति या बिम्ब 'जिन' के प्रतीक है, वैसे ही गुरु भी 'जिन'का प्रतिनिधि है। दोनोंके लिए चैत्य शब्दके प्रयोगमें कोई बाधा नहीं है। वन्दना और पूजामें भेद . "अभिवादनको वन्दना और माल्यार्चनको पूजा कहते हैं । मन-वचन-कायके प्रशस्त व्यापारका नाम अभिवादन है और पूजनमें माल्याद्यर्चनके अतिरिक्त वस्त्र-सत्कार भी शामिल है।" यह भेद केवल शैली-गत है, भाव-गत नहीं । भगवान्के प्रति श्रद्धाका भाव दोनों में समान होता है। वन्दना-साहित्य ___ वन्दनकसूत्रपर, श्री भद्र बाहु स्वामीको नियुक्ति, १९४ गाथाओंमें लिखी गयी थी, जो वन्दना विषयपर सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। इसी सूत्र पर श्री यशोदेवसरिने वि० सं० ११७४में चणि और श्री सोमसून्दरसूरिने भाष्य लिखा था। उत्तराध्ययनसूत्र और आवश्यकसूत्रोंमें भी वन्दनाका सुव्यवस्थित वर्णन हुआ है। आवश्यक सूत्रपर तो 'वन्दारुवत्ति' के नामसे एक टीका भी लिखी गयी थी। श्री हरिभद्रसूरिके 'वन्दनापंचाशक' में वन्दनाका ही वर्णन है । १. भावजिणप्पमुहाणं, सम्वेसिं चेव वंदणा जइ वि। .
जिण चेइयाण पुरो, कीरइ थिइवंदणा तेण ॥१२॥
शान्तिसूरि, चेइयवंदणमहामासं : भावनगर, वि० सं० १९७७, पृ. ३ । २. अहवा जत्थ वि तस्थ वि, पुरओ परिकप्पिऊण जिणविंबं । __ कीरइ बुहेहिं एसा, नेया चिइवंदणा तम्हा ॥१४॥
श्री शान्तिसूरि, चेइयवंदणमहाभासं : मावनगर, वि० सं० १९७७, पृ० ३ । ३. जिणबिंबाभावे पुण, ठवणा गुरु सक्खिया वि कीरन्ती।
चिइवंदण च्चिय इमा, नायम्वा निउणवुद्धीहि ॥१३॥
देखिए वही : पृ. ३।। ४ घंदणमभिवायणयं, पसस्थमण-वयण-कायवावारो
मल्लाइ अच्चणं पूयणं ति वस्थेहिं सक्कारो ॥३९८॥
देखिए वही : पृ. ७२।। ५. Jina Ratna Kosa, Vol. I, H.D. Velankar Edited, Bhandar- ____kar Oriental Research Institute, Poona, 1944, P. 341. ६. देखिए वही : पृ० ३४१ । .
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