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जैन-भक्तिके अंग
अहतकी बन्दना
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वैसे तो आचार्य और उपाध्यायको हो गुरु कहते हैं, किन्तु उनका भी गुरु है भगवान् जिनेन्द्र, अतः उनको भक्ति में भी 'वन्दना' का प्रयोग हुआ है। यह कहना भ्रम-मूलक है कि वन्दना, आचार्य और उपाध्याय तक ही सीमित है । उमास्वाति वाचकने लिखा है कि सच्चा जैन वही है, जो दर्शन-शुद्धिके निमित्त ठीक समयपर भगवान् जिनेन्द्रको वन्दना करता है । आवश्यक सूत्रपर लिखी गयी भद्रबाहु नियुक्ति में तो अर्हन्त उसीको कहा है, पूजा-सत्कार आदिको स्वीकार करनेमें समर्थ हो । श्री हरिभद्रसूरिने भगवान् जिनेन्द्र के सम्मुख शुद्ध मन वच-कायसे झुकनेको हो वन्दना कहा है। श्री शान्तिसूरिने भी लिखा है, "सुखकी अभिलाषा करनेवालोंको चाहिए कि वे प्रणिधानपूर्वक सभी जिनेन्द्रोंकी वन्दना करें।"
जो वन्दन- नमस्कार और
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चैत्यवन्दन
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चैत्य-वन्दनमें पड़ा हुआ 'चैत्य' शब्द किसी भूतावास या वृक्षका द्योतक नहीं है, अपितु बिम्ब या मूर्तिको कहनेवाला है । आचार्य कुन्दकुन्दने षट्पाहुड में fara या मूर्तिको चैत्य कहा है । भगवान् जिनेन्द्र के स्थूल चिह्न बिम्ब या मूर्ति
१. अहिगारिणाउ काले कायन्त्रा वंदना जिणाईणं ।
दंसणसुद्धिनिमित्तं कम्म क्वयमिच्छमाणेण ॥१०॥
शान्तिसूरि, चेहयवंदणमहाभासं : जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि. सं. १९७७, पृ० २ पर निबद्ध |
२. भरहंति वदनमंसणाणि अरहन्ति पूयसक्कारं ।
सिद्धिगमणं च अरिहा, धरहंता तेण वुच्चन्ति ॥
भद्रबाहु नियुक्ति सहित आवश्यकसूत्र : आगमोदय समिति, सूरत, गाथा ९२१वीं, पृ० ४०६ ।
३. देखिए हरिभद्रसूरि, वंदनपंचाशकं
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४. इय सब्ववेइयाण वि कायव्वा वंदना सुहस्थीहिं ।
सव्वे [ वि ] जिर्णेदा एरिस त्ति पणिहाण जुत्तेहिं ॥ देखिए वही : ६४०वीं गाथा, पृ० ११५ ।
५. आचार्य कुन्दकुन्द, बोधपाहुड : ९वीं गाथा, चटपाहुड : : प्राचार्य संस्कृत टीका, पं० जयचन्द छाबड़ा भाषा टीका, पृ० ३७ ।
शान्तिसूरि, चेहयवंदणमहाभासं :
आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि० सं० १९७७, गाथा नं० १६५-६८ उधृत ।
श्रुतसागर