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जैन-भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि के 'षड्भापामयानि जिनपञ्चकम्तोत्राणि' का प्रकाशन हो चुका है।
४. वन्दना बन्दनाकी परिभाषा
वट्टकेरकृत मूलाचारमें कहा है कि तपगुरु, श्रुतगुरु, गुणगुरु, दीक्षागुरु और राधिकगुरुको आदर-सम्मानसे, मन-वचन-कायकी शुद्धिसे सिर झुकाकर प्रणाम करना वन्दना है । आवश्यकसूत्रमें भगवान् महावीरके प्रमुख शिष्योंको, नमस्कार करनेको ही वन्दना कहा है । प्रमुख शिष्य गणधर कहलाते थे । वे ही भगवान्को दिव्यध्वनिके व्याख्याता थे। उन्हें गुरु संज्ञासे अभिहित किया गया है । इस भांति आवश्यक सूत्रने गुरुके लिए अर्पित नमस्कारको बन्दना कहा है। उत्तराध्ययनके उन्तीसर्वे व्याख्यानमें प्रोफ़ेपर जैकोबीने लिखा है, "गुरुको श्रद्धा अपित करना ही वन्दना है।" मिसेज़ स्टीवेन्सनका भी कथन है, "अपराधोंके लिए गुरुसे क्षमा-याचना करना ही वन्दना है।" शतावधानी श्री धीरजलाल टोकरशी शाहका मत है, "गुरुको नमस्कार करना, गुरुका बहुमान करना, उनके समागमसे आत्माको जागत रखना, और सुस्ती, लापरवाही या विपरीतपनसे उनको उपेक्षा न करना ही वन्दना है।"
१. जैनस्तोत्रसमुच्चय : मुनि चतुरविजय सम्पादित, बम्बई, १९२८ ई०,
पृ. ९९-१०६ पर प्रकाशित । 2. अरहन्त-सिद्धपडिमा-तव-सुद- गुणगुरुगुरूण रादोणं ।
किदिकम्मणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो ॥ वट्टकेर, मूलाचार : माणिकचन्द दिगम्बरजैन ग्रन्थमाला, बम्बई, २५वीं
गाथा। 3. The third is the veneration of the leading disciples of
Mahavira. a forg, Bimal Charan Law, Some Jaina Canonical
Sutras, Bombay, 1949, आवस्यसूय, XX111, p. 148. 4. Jacobi, Jain Sutars, Part II, Maxmuller Edited, Sacred
Books of the East, Vol. XIV. Oxford, 1895, उत्तराध्ययनसूत्र,
२९वाँ अध्याय, पृष्ठ १५९ । 5. Mrs. Stevenson, The heart of Jainism, Huniphrey Milford,
Oxford University Press, 1915, P. 255. ६. धीरजलाल टोकरशीशाह, ईर्यापथप्रतिक्रमण, श्रमण, वर्ष १, अंक ७, पृष्ठ ३५ ।