________________
जैन मक्तिके अंग हैं। विक्रमको आठवीं शताब्दीके हरिभद्रसूरिका वीरस्तव, और श्री बप्पभट्टिसूरिका साधारणजिनस्तवन या वीरस्तव' भी बहुत प्रसिद्ध है । भगवज्जिनसेनाचार्य [ नवीं शताब्दी विक्रम ] का सहस्रनाम, नामस्तवनके अन्तर्गत आता है।
कवि धनपालने संस्कृत-प्राकृतमय वीरस्तवकी रचना की थी। श्रीजिनदत्तसूरिका अजित-शान्तिस्तव और हेमचन्द्राचार्यके नेमिस्तवनको प्रसिद्ध स्तवोंमें गणना है । पं० आशाधर [ १२३५-१३०० वि.सं.] का सहस्रनामस्तवन सुखसागरीय और स्वोपज्ञवृत्तियोंके साथ प्रकाशित हो चुका है। आचार्यहेमचन्द्रके शिष्य श्री रामचन्द्रसूरि ( जन्म सं० ११४५ मृत्यु सं० १२३०) ने १७ 'साधारणजिनस्तवन,' 'श्री मुनिसुव्रतदेवस्तवः' और 'श्री नेमिजिनस्तवः' को रचना को थी। विविधतीर्थकल्पके कर्ता श्री जिनप्रभसूरिके उज्जयन्तस्तव, ढोंपुरीस्तव, हस्तिनापुरतीर्थस्तवन और पंचकल्याणकस्तवन विविध तीर्थकल्पमें निबद्ध हैं । इनके अतिरिक्त उन्होंने संस्कृतमें पाश्वनाथस्तव
और अपभ्रंशमें जिनागमस्तवनकी भी रचना की। श्री शान्तिसरि [ १२वों शतो ईसवो ] ने शान्तिस्तव और मेरुनन्दनोपाध्याय [ १३७५-१४३२ वि. सं.] १. दोनों हो देवचन्द लालमाई पुस्तकोद्धार फण्ड सीरीज , बम्बईसे प्रकाशित
हो चुके हैं। २. जैनस्तोत्रसंदोह : प्रथम भाग, चतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद,
पृ० २९ । ३. बृहजिनवाणीसंग्रह : पं० पनालाल बाकलीवालजी सम्पादित, जैन ग्रन्थ
कार्यालय, मदनगंज, सम्राट संस्करण, सितम्बर १९५६, पृष्ठ १६५-८५
पर प्रकाशित हो चुका है। ४. जैनस्तोत्रसंदोह : प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद,
पृष्ठ ९१ पर प्रकाशित हो चुका है। ५. देखिए वही : पृष्ठ १९९ । ६. सिद्धहेमव्याकरणका ही एक भाग है। ७. भारतीय ज्ञानपीठ काशी, वि. सं. २०१० । ८. तीनों ही, जैनस्तोत्रसंदोह : प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय सम्पादित, अह
मदाबाद, क्रमशः पृष्ठ १६२-८९, १३३ और १३८ पर प्रकाशित हो चुके हैं। दोनोंका उल्लेख, Jina Ratna Kosa, Vol. I, H. D. Velankar Edited, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, Il 44, p. 139, 247 पर हुआ है।