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जैन-मक्तिकाब्यकी पृष्ठभूमि
आचार्य नेमिचन्द्र [११वीं शताब्दी पर्धि वि०सं० 1 के गोम्मट्रसार कर्मकाण्डमें स्तव और स्तुति में भेद बताया गया है, "स्तवमें वस्तुके सर्वांगका और स्तुतिमें एक अंगका अर्थ विस्तार या संक्षेपसे रहता है। आगे चलकर यह भेद विलुप्त हो गया और मनचाहे रूपसे स्तव और स्तुति नाम दिये जाने लगे। स्तवके मेद
मूलाचारमें स्तव या स्तवनके छह भेद कहे गये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । पण्डित आशाघरजीने भी अपने अनगारधर्मामतके आठवें अध्यायमें स्तवनके ये ही छह भेद गिनाये हैं। चौबीस तीर्थकरोंके वास्तविक अर्थवाले एक हजार आठ नामोंसे स्तवन करनेको नामस्तव कहते हैं। तीर्थकरके बिम्ब और मूर्तिके स्तवनको स्थापनास्तव, आचार्य-उपाध्याय और साधुओंके शरीरस्तवनको द्रव्यस्तव, जैन महापुरुषों और तीर्थंकरोंसे सम्बन्धित स्थानोंके स्तवनको क्षेत्रस्तव, पंचकल्याणक अथवा किसी महत्त्वपूर्ण घटना-समयके स्तवनको कालस्तव और हृदयमें जिनेन्द्रको लाकर, उनके प्रति बने प्रशंसामय भावोंको भावस्तव कहते हैं। स्तव-साहित्य
मुनि चतुरविजयजीने श्री विजयसिंहाचार्यके नेमिस्तवन को सबसे अधिक . प्राचीन माना है। उनका कथन है, "इत्यादिपद्यावलोकनादतिप्राचीनतरं स्तोत्रमिति निश्चयो मे जातः । यतोऽसौ श्रीविजयसिंहाचार्यः श्री आर्यखपटवंशीयः।" उन्होंने आचार्य श्री खपटगुरुको भगवान् महावीरसे मोक्ष जानेके ४८४ वर्ष बादका माना है। श्री सिद्धसेन दिवाकरके पार्श्वनाथस्तवन और शक्रस्तव भी प्राचीन
१. सयलंगेक्कंगेक्कंगहियार सवित्थरं ससंखेवं ।
वण्णणसत्थंथय थुइ धम्मकहा होइ णियमेण ॥ ८८ ॥ नेमिचन्द्राचार्य, कर्मकाण्ड : जे. एल. जैनी सम्पादित,अजिताश्रम लखनऊ,
१९२७ ईसवी, पृ०४०।। २. वट्टकेर, मूलाचार : माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, ७।४० । ३. चतुर्विशतितीर्थकराणां यथार्थानुगतैः अष्टोत्तरसहस्रसंख्यैर्नामभिः स्तवनं
चतुर्विंशतिनामस्तवः।
देखिए वही : आचार्य वसुनन्दिकृत संस्कृत टोका, ७४१ । ४. जैनस्तोत्रसंदोह : प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद ।
प्रस्तावना, पृ० ९-१०।