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जैन-भक्तिके अंग
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कार किया गया है। भक्तिके क्षेत्रमें संस्तव शब्दका परिचयवाला अर्थ, केवल चौबीस तीर्थंकरोंसे सम्बन्धित हैं, किसी लौकिक पुरुषकें साथ नहीं । भक्तकी आराध्यसे घनिष्ठता ही संस्तव है । संस्तवका श्लाघावाला रूप तो सभी जगह आया है, किन्तु उसमें भी जिनेन्द्रके अनन्तचतुष्टयकी श्लाघा ही अभीष्ट है, लौकिक निमित्तके लिए सांसारिक- जनकी चाटुकारितासे यहाँ कोई मतलब नहीं है । वट्टकेरकृत मूलाचार में तीर्थंकरके असाधारण गुणोंकी प्रशंसा करनेको हो स्तव स्वीकार किया गया है । षड्आवश्यकसूत्रमें भी चौबीस तीर्थंकरोंकी प्रशंसा करनेको हो स्तव कहा है ।
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स्तव और स्तोत्रमें भेद
श्री शान्तिसूरिने दोनोंमें भेद बताते हुए लिखा है, "स्तव गम्भीर अर्थवाला और संस्कृत भाषामें निबद्ध किया जाता है, तथा स्तोत्रकी रचना विविध छन्दोंके द्वारा प्राकृत भाषा में होती है ।" अर्थात् स्तव संस्कृतमें और स्तोत्र प्राकृतमें रचा जाता है | कुछ समय तक यह भेद अवश्य चलता रहा होगा, क्योंकि भद्रबाहुका 'उवसग्गहरस्तोत्त' प्राकृत भाषामें ही है, किन्तु परवर्ती समय में ऐसा भेद नहीं रहा । आचार्य समन्तभद्रका बृहत्स्वयंभूस्तोत्र संस्कृत में है और धर्मविधानका ' जस्सासी चवण चउत्थिदिवं' वाला चतुर्विंशतिकास्तवन प्राकृत में है, कल्याणमन्दिरस्तोत्र संस्कृत में है और पंचकल्याणस्तवनम् प्राकृतमें है ।
१. अमरकोश : संक्षिप्त माहेश्वरी टीका युक्त, नारायणराम आचार्य 'काव्यतीर्थ' संशोधित, निर्णयसागर प्रेस बम्बई, १९४० ईसवी, २२९५वीं पंक्ति,
पृ० २२४ ।
२. उसहादिजिणवराणं णामणिरुत्तिं गुणाणुकिन्ति च ।
काऊण अच्चिदूण यतिसुद्धपणमो थओ ओ ॥
वरकृत मूलाचार : २४वीं गाथा, तत्वसमुच्चय, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, भारत जैन महामण्डल, वर्धा, नव० १९५२, पृ० २३ से
उधृत ।
३. Bimal Charan Law, Some Jain Canonical Sutras, RoyalAsiatic Society, Bombay, 1949 A. D.
४. सक्कयमासाबद्धो, गंभीरस्थो, थओत्ति विक्खाओ ।
पाययभासाबद्धं थोक्तं विविहेहि छंदेहिं ॥ ८४१ ॥
श्री शान्तिसूरि, चेहयवंदणमहाभासं : जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि. सं. १९७७, पृ० १५० ।
p. 148.