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जैन-मकिकाम्यकी पृष्ठभूमि धातु पुष्पादिके द्वारा अर्चन करनेमें, गन्ध, माला, वस्त्र, पात्र, अन्न और पानादिके द्वारा सत्कारके अर्थमें, स्तवादिके द्वारा सपर्या करनेमें और पुष्प-फल, आहार तथा वस्त्रादिके द्वारा उपचार करनेमें आती है।'
'पाइअ-सह-महण्णव' में पूजाको 'पूआ' कहा गया है, जिसका अर्थ सेवासत्कार करना होता है।
जैन-शास्त्रोंमें सेवा-सत्कारको 'वैय्यावृत्य' कहा जाता है । आचार्य समन्तभद्र [वि. द्वितीय शताब्दी ] ने पूजाको वैय्यावृत्त्य माना है । उन्होंने कहा, "देवाधिदेव जिनेन्द्रके चरणोंकी परिचर्या अर्थात् सेवा करना ही पूजा है।" उनकी यह सेवा जल, चन्दन और अक्षतादि रूप न होकर 'गुणोंके अनुसरण' तथा 'प्रणामाञ्जलि' तक ही सीमित थी। किन्तु छठी शताब्दोके विद्वान् यतिवृषभने पूजामें जल, गन्ध, तन्दुल, उत्तम भक्ष्य, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंको भी शामिल किया है।
बारहवीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हुए आचार्य वसुनन्दिके श्रावकाचारमें भी अष्ट मङ्गल-द्रव्योंका उल्लेख हुआ है । उन्होंने कहा, "आठ प्रकारके मङ्गल-द्रव्य और अनेक प्रकारके पूजाके उपकरण-द्रव्य तथा धूप-दहन आदि जिन-पूजनके लिए वितरण करे।" पूजा-विधानको परिभाषा बतलाते हुए उन्होंने लिखा, "अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुलों तथा शास्त्रकी जो वैभवसे नाना प्रकारकी
१. अमिधानराजेन्द्र कोश : भाग ५, पृ० १०७३ । २. पाइअ-सह-महण्णव : पं० हरिगोविन्ददास त्रिकमचन्द्र सेठ सम्पादित, कल__कत्ता, प्रथम संस्करण, सन् १९२८ ई०, माग ३, पृ० ७५५ । ३. देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःख-निहरणम् । . कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादाहतो निस्यम् ॥ आचार्य समन्तमद्र, समीचीनधर्मशास्त्र : पं० जुगलकिशोर सम्पादित, वीरसेवामन्दिर दिल्ली, वि० सं० २०१२, ५।२९, पृ० १५५ । ४. देखिए वही, ५।२९ की व्याख्या, पं० जुगलकिशोर कृत, पृ० १५७ । ५. आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति : भाग २, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, __शोलापुर, सन् १९४३ ई०, ४९, पृ० ६६४। ६. अविहमंगलाणि य बहुविहपूजोवयरणादग्वाणि ।
धूवदहणाइ तहा जिणपूयत्थं वितीरिज्जा। आचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दि-श्रावकाचार :पं. हीरालाल सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, अप्रैल १९५२, ४४२वीं गाया, पृ० १२९ ।