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जैन-मक्तिके अंग पूजा की जाती है, उसे पूजन-विधान समझना चाहिए।'' पूजाके भेद ___ मुख्यरूपसे पूजाके दो भेद हैं-द्रव्य-पूजा और भाव-पूजा। किसी-न-किसी द्रव्यसे आराध्यके मूर्ति-बिम्ब आदिकी पूजा करना द्रव्य-पूजा है, और शुद्ध भावसे क्षायोपशमिकादि भावके प्रतीक जिनेन्द्रको नमस्कार करना, उनका ध्यान लगाना अथवा उनके गुणोंका कीर्तन करना भाव-पूजा है। भेद इतना ही है कि भाव-पूजामें भगवान्को मनमें स्थापित करना होता है जब कि द्रव्य-पूजामें भगवानका कोई-न-कोई चिह्न द्रव्य रूपमें सामने उपस्थित रहता है। मनमें निराकार भगवान्को उतारना कठिन काम है, इसलिए द्रव्य-पूजा गहस्थोंके लिए
और भाव-पूजा साधुओंके लिए निर्धारित की गयी है। जहाँतक पूजकके भावोंका सम्बन्ध है, दोनोंमें भेद नहीं है। __ आचार्य वसुनन्दिने पूजाके छह भेद स्वीकार किये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । अरहन्त आदिका नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में पुष्प क्षेपण करना नाम-पूजा है । कीर्तन इसीमें शामिल है । जिनेन्द्र, आचार्य और गुरुजन आदिके अभावमें उनको तदाकार अथवा अतदाकार रूपसे स्थापना कर जो पूजा की जाती है, वह स्थापना-पूजा है । भाव-पूजाका आलम्बन अतदाकारको स्थापना ही है। जल, गन्ध आदि अष्ट द्रव्यसे प्रतिमादि द्रव्यकी जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य-पूजा जानना चाहिए । भगवान् जिनेन्द्रके पंचकल्याणक और पंचपरमेष्ठियोंको स्मृतिसे चिह्नित स्थानोंकी पूजा करना क्षेत्र-पूजा है । जैन महापुरुषोंको तिथियोंपर उत्सव मनाना, काल-पूजा है । परम भक्तिके साथ जिनेन्द्र भगवान्के अनन्तचतुष्टय आदि गुणोंका कीर्तन, ध्यान, जप और स्तवन भाव-पूजा कही जाती है।
१. जिण-सिद्ध-सूरि-पाठय-सारणं जं सुयस्स विहवेण । कीरइ विविहा पूजा वियाण तं पूजणविहाणं ॥
देखिए वही : ३८०वीं गाथा, पृ० १२१ । २. अमिधानराजेन्द्र कोश : भाग ३, पृ० १२१७ । ३. णामट्टवणा-दब्वे खित्ते काले वियाण भावे यः।
छविहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहि । वसुनन्दि-श्रावकाचार : पं० हीरालाल सम्पादित, काशी, ३८१वीं गाथा,
पृ० १२१ । ... ४. देखिए वही : ३८२-९२ गाथाएँ, पृ० १२१-२२॥