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जैन- भक्तिकाव्यकी पृषभूमि
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ही है। श्रावक केवल श्रद्धा करता है, और ऐसा करनेसे उसे सम्यग्दर्शन हो जाता है । सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं-सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन सरागियों अर्थात् श्रावकोंको होनेवाला सम्यग्दर्शन, सराग सम्यग्दर्शन कहलाता है । ऐसा श्रावक केवल बाह्य रूपसे रागी दिखायी देता है, किन्तु उसका अन्तः तो पवित्र श्रद्धासे युक्त रहता है ।
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श्रावक, श्रद्धा के द्वारा ही आत्म-साक्षात्कारका फल पा लेता है । वह अपनी आत्माको देखनेका प्रयास नहीं करता, किन्तु जिनेन्द्रमें श्रद्धा करता है । जिनेन्द्रका स्वभाव रागादिसे रहित, शुद्ध आत्माका स्वभाव है । इस भाँति जो अरहंतको जानता है, वह अपने शुद्ध आत्म-स्वरूपको ही जानता है, और जो अरहंतके स्वरूपमें स्थिर रहता है, वह अपने आत्मस्वरूपमें ही स्थिर रहता है । आचार्य समन्तभद्रने श्रद्धाके स्थानपर सुश्रद्धाका प्रयोग किया है। श्रद्धा तो अन्ध भी हो सकती है; किन्तु सुश्रद्धाके ज्ञान चक्षु सदैव खुले रहते हैं । वैसे तो प्रत्येक श्रद्धा ज्ञानपूर्वक ही होती है, क्योंकि मनुष्य में साधारण ज्ञान प्रत्येक समय रहता है, किन्तु सुश्रद्धा एक विशिष्ट ज्ञानपूर्वक होती है । आचार्य समन्तभद्रने सर्वज्ञकी परीक्षा में इसी विशिष्ट ज्ञानका परिचय दिया था। श्री सिद्धसेन
१. ' श्रन्ति पचन्ति तवार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः ' ।
देखिए, अभिधानराजेन्द्र कोश, 'सावय' शब्द |
२. 'तत् द्विविधं, सराग- वीतरागविषयभेदात् ' ॥
आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : पं० फूलचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, वि० सं० २०१२, पृ० १० ।
३. देखिए वही : पं० फूलचन्द्रजी कृत हिन्दी व्याख्या, पृ० ११ ।
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४. आचार्य शिवार्यकोटि, भगवती आराधना मुनि श्री अनन्तकीर्त्ति ग्रन्थमाला ८, बम्बई, पृ० ३०२, ४९वीं गाथाका भावार्थ |
५.
'सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचनं वापि ते ।
देखिए, आचार्य समन्तभद्र, स्तुतिविद्या: पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, वि० सं० २००७, ११४वाँ पद्य, पृ० १३७ ।
६. अतएव ते बुध-नुतस्य चरित - गुणमद्भुतोदयम् ।
न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम् ॥
आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : पं० जुगलकिशोर सम्पादित, सरसावा, वि० सं० २००८, १३०वाँ पद्य, पृ० ८१ ।