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मक्तिका स्वरूप
है । श्री उमास्वातिने तत्त्वार्थके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है। आचार्य समन्तभद्र आप्तादिके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शन मोक्षका साधन है । दर्शन शब्द 'दृशि' धातुसे बना है, जिसका अर्थ देखना होता है । फिर सम्यग्दर्शन में पड़े हुए 'दर्शन' को श्रद्धान कैसे मान लिया ? उत्तर देते हुए भट्टाकलंकने राजवात्र्तिकमें लिखा है, "धातुओंके अनेकार्थ होते हैं, इसलिए उनमें से 'श्रद्धान' अर्थ भी ले लिया जायेगा । चूँकि यहाँ मोक्षका प्रकरण है, अतः दर्शनका अर्थ देखना इष्ट नहीं, तत्व-श्रद्धान हो इष्ट कुन्दने लिखा है कि आत्म-दर्शन हो सम्यग्दर्शन है, मत है कि आत्माका दर्शन तबतक नहीं हो सकता, जबतक वैसा करनेकी श्रद्धा जन्म न ले । श्रद्धापूर्वक किया गया प्रयास ही 'आत्म-दर्शन' कराने में समर्थ होगा । अतः दर्शनका पहला अर्थ श्रद्धान है, दूसरा साक्षात्कार ।
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1 आचार्य कुन्द
किन्तु
अकलंकदेवका
जैन - परम्परामें श्रावक शब्द महत्त्वपूर्ण है । इस शब्द में 'श्रा' का अर्थ श्रद्धान
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१. 'तस्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्', देखिए आचार्य उमास्वाति, तस्वार्थ सूत्र पं० कैलाशचन्द्र सम्पादित, चौरासी ( मथुरा ) १२, पृ० ३ ।
२. श्रद्धानं परमार्थानामाप्ताऽऽगमतपोभृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
आचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र : पं० जुगल किशोर सम्पादित, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, अप्रैल १९५५, १1४, पृ० ३२ ।
३. 'जीवहँ मोक्खहँ हेड वरु दंसणु णाणु चरितु'
देखिए, योगीन्दुदेव, परमात्मप्रकाश : श्री आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सम्पादित, परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई, नयी आवृत्ति, १९३७, २।१२, पृ० १३८ ।
४. दृशेरालोकार्थत्वादमिप्रेतार्थासंप्रत्यय इति चेत्; न; अनेकार्थत्वात् । ३ । मोक्ष कारणप्रक्ररणाच्छूद्धानगतिः । ४ ।
आचार्य मट्टाकलंक ( सातवीं शताब्दी विक्रम ), तस्वार्थ वार्त्तिक : भाग १, पं० महेन्द्रकुमार सम्पादित, हिन्दी अनूदित, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १२, ३।४ वार्त्तिक, पृ० १९. हिन्दी अनु०, पृ० २७६ ।
५. तह सेडिया
दु ण परस्स सेडिया सेडियाय सा होइ ।
तह दंसणं दुण परस्स दंसणं दसणं तं तु ॥ ३५६ ॥
आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारौठ, फरवरी १९५३, पृ० ४८४ ॥
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