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जैन-भक्तिका स्वरूप
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दिवाकर ने "अनेन परीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः " के द्वारा कहा है कि, आचार्य समन्तभद्र परीक्षा करनेके उपरान्त ही भगवान् जिनेन्द्रके दृढ़ भक्त बने थे । वस्तुतः भक्तिमें दृढ़ता सुश्रद्धासे ही आ पाती है । आचार्य समन्तभद्र भगवान् जिनेन्द्र के ऐसे दृढ़ भक्त थे कि उन्होंने 'जिन' भगवान्को छोड़कर अन्य किसी देवको कभी नमस्कार नहीं किया। उन्होंने उसीको प्रज्ञा कहा, जो भगवान् जिनेन्द्रका स्मरण करे, और उन्होंने उसीको उत्तम, पवित्र तथा पण्डित स्वीकार किया जो भगवान् जिनेन्द्रके चरणोंमें सदैव नत रहे । उनका विचार
१. पं० सुखलालजी संघवीने आचार्य सिद्धसेन दिवाकरका समय विक्रमकी पाँचवीं शताब्दी निर्धारित किया है। देखिए पं० सुखलालजी संघवी, 'सिद्धसेन दिवाकरना समयनो प्रश्न', भारतीय विद्या : भाग ३ [ बहादुरसिंहजी स्मृतिग्रन्थ ] भारतीय विद्याभवन, बम्बई, १९४५, पृ० १५४ । और
पं० जुगलकिशोर मुख्तारने उनको, विक्रमकी छठी शताब्दीके तृतीय चरणसे सातवीं शताब्दीके तृतीय चरणके मध्यवर्ती कालका स्वीकार किया है देखिए जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाशः श्री वीरशासन संघ, कलकत्ता, जुलाई १९५६, पृ० ५६६ ॥
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और
डॉ० विष्टरनिट्ज़ने उनका समय ईसाकी सातवीं सदी माना है। देखिए, Dr. Winternitz, History of Indian Literature, Vol. II, Calcutta Univresity, 1933, p. 477.
२.
य एष षड्जीव - निकाय-विस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ॥ आचार्य सिद्धसेन, द्वात्रिंशिकास्तोत्र : अवचूरि- सहित, श्री उदयसागर सूरि सम्पादित, गुजराती व्याख्या-युक्त, जैन धर्म प्रसारक सभा, नगर, १९०८ ई०, पहली द्वात्रिंशिका, १३वाँ पद्य ।
भाव
३. प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तद्यनतं ते पदे जन्मादः सफलं परं भवमिदी यत्राश्रिते ते पदे । माङ्गल्यं च स यो रतस्तव मते गीः सैव या त्वा स्तुते
ते ज्ञा या प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते ॥
आचार्य समन्तभद्र, स्तुतिविद्या : पं० जुगलकिशोर, सम्पादित, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, वि० सं० २००७, ११३वाँ पथ, पृ० १३६ ।
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