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जैन-भक्तिकाम्यकी पृष्ठभूमि
उपचारविनय-आचार्योंके पीछे-पीछे चलने, सामने आनेपर खड़े हो जाने, अंजलिबद्ध होकर नमस्कार करनेको कहा है।' निशीथचूर्णिमें भी, 'अब्भुट्ठाणदंडग्गहणपायपुंछणासणप्पदाणगहणादीहिं सेवा जा सा भत्ति' लिखा है। इसका अर्थ है-आचार्योंके सम्मानमें खड़े हो जाना, दण्डग्रहण करना, पायं पोंछना, आसन देना आदि जो सेवा है, वह ही भक्ति है । आचार्य वसुनन्दिने उपचारविनयके भी तीन भेद किये हैं, जिनमें कायिक उपचारविनयका सेवासे सीधा सम्बन्ध है। उन्होंने लिखा, “साधुओंकी वन्दना करना, देखते ही उठकर खड़े हो जाना, अंजली जोड़ना, आसन देना, पीछे-पीछे चलना, शरीरके अनुकूल मर्दन करना और संस्तर आदि करना कायिक विनय है।" आचार्य शान्तिसूरि
१. प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युस्थानामिगमनाअलिकरणादिरुपचारविनयः ।
देखिए, आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : पं. फूलचन्द्र सम्पादित, भारतीय
ज्ञानपीठ काशी, वि० सं० २०१२, पृ० ४४२ । २. जिनदासगनी, निशीथचूर्णि [ सातवीं-आठवीं शताब्दी विक्रम ] : विजय
प्रेमसूरीश्वर सम्पादित, वि० सं० १९९५, १३० । ३. आचार्य वसुनन्दि, बारहवीं शताब्दीके प्रथम चरणमें हुए हैं। देखिए, वसुनन्दि-श्रावकाचार : पं० हीरालाल जैन सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, अप्रैल १९५२, प्रस्तावना, पं० हीरालाल जैन लिखित, पृ० १९ ।
और पुरातन जैन वाक्य सूची : प्रथम माग, पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, वीरसेवामन्दिर,सरसावा [ सहारनपुर ], १९५० ईसवी, भूमिका,
पृ. १००। ४. उवयारिओ वि विणओ मण-वचि-काएण होइ विवियप्पो ।
आचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दि श्रावकाचार : पं० हीरालाल जैन सम्पादित,
भारतीय ज्ञानपीठ काशी, अप्रैल १९५२, ३२५वीं गाथा, पृ० ११४ । ५. किरियम्मब्भुट्टाणं णवणंजलि आसणुवकरणदाणं ।
एते पच्चुग्गमणं च गच्छमाणे अणुब्वजणं ॥ कायाणुरूवमद्दणकरणं कालाणुरुवपडियरणं । संथारमणियकरणं उवयरणाणं च पडिलिहणं ॥ इच्चेवमाइ काइरविणओ रिसि-सावयाण कायम्वो। देखिए वही : गाथा ३२८-३३०, पृ० ११५।