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जैम-भक्तिका स्वरूप ने एक प्राचीन गाथाको व्याख्या करते हुए कहा है,-सुर और सुरपति, भक्तिवशाद, अंजलिबद्ध होकर भगवान महावीरको नमस्कार करते हैं, वह ही सेवा है। आचार्य श्रुतसागर सूरिने भी आचार्य, उपाध्याय आदिको देखकर खड़े होने, नमस्कार करने, परोक्षमें परोक्ष विनय करने और गुणोंका स्मरण करनेको भगवान्की सेवा कहा है।
आचार्य कुन्दकुन्द [ पहलो शताब्दी विक्रम ]ने वयावृत्त्यको भी भक्ति कहा है । उनका कथन है, "हे मुने ! भक्तिपूर्वक अपनी शक्ति-भर जिन-भक्तिमें तत्पर, दश भेदवाले वैयावृत्त्यको सदा करो।" यह वैयावृत्त्य भगवान्को
सेवा ही है। आचार्य समन्तभद्रने लिखा है, "गुणानुरागसे संयमियोंकी आप- 1. जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति ।
तं देवदेव महिअं, सिरसा वंदे महावीरं ॥ श्री शान्तिसूरि,चेइयवंदण महामासं : जैन आत्मानन्दसमा मावनगर, वि.
सं० १९७७, पाद-टिप्पण १ । २. बाहिरिगा वि हु सेवा, संभवइ अओ विसेसओ भणियं ।
जं देवा पंजलिणो, भत्तिवसानो नमसंति ॥ सेवा-नमंसणाई, सुरेहिं कोरंति सुरवईणं पि। तं देवदेवमहियं, सुरव इमहियं ति संलत्तं ॥
देखिए वही : गाथा ७३५-७३६, पृ. १३२ । ३. आचार्योपाध्यायादिषु अध्यक्षेषु अभ्युत्थानं वन्दनाविधानं करकुड्मलीकरणं,
तेषु परोक्षेषु सत्सु कायवाड्मनोमिः करयोटनं गुणसङ्कीर्तनमनुस्मरणं स्वयं ज्ञानानुष्ठायित्वञ्च उपचारविनयः । भाचार्य श्रुतसागर सूरि, तस्वार्थवृत्ति : पं० महेन्द्रकुमार जैन सम्पादित,
भारतीय ज्ञानपीठ काशी, मार्च १९४९, ९।२३की व्याख्या, पृ० ३०४ । ४. णियसत्तिए महाजस मत्तीराएण णिच्चकालम्मि ।
तं कुण जिणमत्तिपरं विज्जावचं दसवियप्पं ॥ कुन्दकुन्दाचार्य, अष्टपाहुड : आचार्य श्रुतसागरको संस्कृत टीका और पं० जयचंद छावड़ाकी भाषाटीका सहित, श्री पाटनी दिगम्बर जैन ग्रन्थ
माला, मारौठ ( मारवाड़), मावपाहुड : १०५वीं गाथा । ५. पं० जुगलकिशोर मुख्तारने अनेक तर्क-वितकोंके आधारपर प्रामाणिक
रूपसे, आचार्य समन्तभद्रका समय विक्रमकी दूसरी अथवा ईसाकी पहली शताब्दी निर्धारित किया है। देखिए, पं० जुगलकिशोर मुख्तार, जनसाहित्य और इतिहासपर विशदप्रकाश : बीर शासन संघ, कलकत्ता, जुलाई १९५६, पृ० ६९७ ।