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जैन-भक्तिका स्वरूप 'भक्ति' शब्दकी व्युत्पत्ति
'भक्ति' शब्द, 'भज' धातुमें स्त्रीलिंग क्तिन् प्रत्यय जोड़कर बनता है, ऐसा अभिधानराजेन्द्रकोशमें माना गया है । मुनि पाणिनिने 'स्त्रियाँ क्तिन्' से, धातुओंमें स्त्रीवाची क्तिन् प्रत्यय लगानेका विधान किया है। क्तिन् प्रत्यय भाव अर्थमें होता है किन्तु वैयाकरणोंके यहाँ कृदन्तीय प्रत्ययोंके अर्थ-परिवर्तन एक प्रक्रियाके अंग हैं । अतः वही क्तिन् प्रत्यय अर्थान्तरमें भी हो सकता है। इस प्रकार भक्ति शब्दको, भजनं भक्तिः, भज्यते अनया इति भक्तिः, भजन्ति अनया इति भक्तिः, इत्यादि व्युत्पत्तियां की जा सकती हैं । भक्ति और सेवा ___'भज सेवायाम्'से भज धातु सेवा अर्थमें आती है। पाइअ-सह-महण्णवमें भी भक्तिको सेवा कहा है। राजेन्द्रकोशमें 'सेवायों भक्तिविनयः सेवा' कहकर भक्तिको सेवा तो माना ही है, सेवाका अर्थ भी विनय किया है। विनयके चार भेद हैं, जिनमें उपचारविनयका सेवासे मुख्य सम्बन्ध है। आचार्य पूज्यपादने १. अभिधानराजेन्द्र कोश : पाँचवाँ भाग, पृष्ठ १३६५ ।। २. महामुनि पाणिनि, अष्टाध्यायीसूत्रपाठ : वार्तिकादियुक्त, निर्णय सागर
प्रेस, बम्बई, ३।३।९४ । ३. पाइअ-सह-महण्णव : पण्डित हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द शेठ सम्पादित,
कलकत्ता, प्रथम संस्करण, १९२८ ईसवी, पृष्ठ ७९६ । ४. अमिधानराजेन्द्रकोश : पाँचवाँ माग, पृष्ट १३६५ । 4. "ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचारः।"
देखिए, आचार्य उमास्वाति [ दूसरी शताब्दी विक्रम ] । तस्वार्थसूत्र : पण्डित सुखलालजी संघवी सम्पादित, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल,
बनारस, १९५२ ईसवी, ९।२३, पृष्ठ ३२१ । ६. पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने आचार्य पूज्यपादका समय विक्रमकी छठी
शताब्दी निर्धारित किया है। देखिए, जैन साहित्य और इतिहास : नवीन संस्करण, संशोधित साहित्यमाला, ठाकुरद्वार, बम्बई २, अक्टूबर १९५६, पृष्ठ ४६ ।
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