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जैन-मक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि है। यह कथन निरर्थक है कि चैत्यका अर्थ प्रतिमा नहीं होता। सूत्रकृतांगकी दीपिकामें "मंगलं देवता चैत्यमिव पर्युपासते", ठाणांगसूत्र सटीकमें 'चैत्यमिव जिनादिप्रतिमेव चैत्यं श्रमणं", आवश्यक हारिभद्रीयमें "चैत्यानि-अर्हत्प्रतिमा"
और प्रश्नव्याकरणमें "चैत्यानि-जिनप्रतिमा" लिखा है। हार्नेलद्वारा सम्पादित 'उवासगदसाओ'को टोकामें भी "चैत्यानि अर्हत्प्रतिमालक्षणानि" दिया हुआ है। कौटिल्यके अर्थशास्त्रमें चैत्य शब्द देवमन्दिर और देवप्रतिमा दोनों हो अर्थोमें लिया गया है। ए० कर्न लिखित "मैनुयल आव बुद्धिज्म" में चैत्यका अर्थ 'इमेज' किया है। - जैन आचार्योंने अर्हन्त और अर्हन्तप्रतिमामें कोई अन्तर स्वीकार नहीं किया, अतः जनोंका चैत्यवन्दन 'अर्हन्तवन्दन' के समान हो 'अर्हन्तप्रतिमा वन्दन' पर भी लाग होता है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायनके अनुसार "बौद्धोंमें चैत्यसे मूत्ति में पूजा-प्रतीकका विकास हुआ, किन्तु चैत्यवन्दन मतिवन्दनका पर्यायवाची कभी नहीं रहा । ऐसा ही जैनोंमें होना चाहिए, यदि ऐसा नहीं तो पुरातात्त्विक सामग्री से उसे पुष्ट करना चाहिए।" जब विक्रमकी पहलो शतोके ग्रन्थों में जिन और जिन-प्रतिमाको एक ही कहा तो चैत्य-वन्दन केवल जिन-वन्दन कैसे रह जायगा। उसका अनेक ग्रन्थोंमें, जिन-प्रतिमा-वन्दनके अर्थमें भी समान रूपसे प्रयोग हुआ है। महात्मा बुद्धने वैशालीकी चैत्य-पूजाका उल्लेख किया है । जैन ग्रन्थों में भी इसका वर्णन है। महावीर और बुद्धके समयमें प्रतिमाओंकी रचना होती थी या नहीं, अधिकारपूर्वक नहीं कहा जा सकता, किन्तु जब मोहन-जो-दड़ोकी खुदाइयों में तीन हजार वर्ष पुरानी मूर्तियां मिली हैं, तो महावीरके युगमें भी मूत्तियोंका अभाव न होगा। जनोंमें उस मूर्तिका वर्णन मिलता है, जिसे नन्दराजा कलिंगसे उठा ले गये थे और जिसे सम्राट् खारवेल १७० वर्ष ईसा पूर्वमें वापस लाया। अभी लोहिनीपुरमें एक जिन-मूर्ति मिली है। उसका समय ईसासे तीन सौ वर्ष पूर्व कृता जाता है। अत: यह असम्भव नहीं है कि भगवान् महावीरके माता-पिता जिसचैत्यमें प्रतिदिन जिन-वन्दनके अर्थ जाते थे, वहाँ कोई जिन-मूर्ति अधिष्ठित हो। यह भी हो सकता है कि वैशालीका मुनिसुग्रत स्वामीका चैत्य उनकी मूत्तिसे संयुक्त हो। - यह सत्य है कि चैत्य यक्षोंके आवास-गृह थे, किन्तु यह भी ठीक ही है कि यक्षोंको जैन परम्परा सदैव जिन-भक्तके रूपमें ही स्वीकार करती रही है । उनकी भक्ति भगवान्के भक्तोंकी भक्ति है। आज भी 'महावीरजी' में अतिशयपूर्ण महावीर-मूत्तिको महिमाके विस्तारका श्रेय एक यक्षको दिया जाता है । अत: यक्षके आवास-गृहका अर्थ यह नहीं है कि वहां जिन-मूत्ति नहीं होगी। यक्षकी