________________
भूमिका
उपकार-वृत्तिके कारण कभी-कभी ऐसा होता था कि उसके नामपर चैत्यका नाम पड़ जाता था । औपपातिक आगम ग्रन्थ में चम्पाके एक प्रसिद्ध चैत्यका वर्णन आया है । उसका नाम 'पूर्णभद्र चैत्य' था। वह यक्ष पूर्णभद्र के नामपर प्रतिष्ठित था । पूर्णभद्र और मणिभद्रकी गणना, जिनेन्द्र के प्रथम कोटिके भक्तोंमें की जाती है । अतः उसका नाम भले ही पूर्णभद्रचेत्य हो, किन्तु उसमें जिन मूर्ति नहीं होगी, सिद्ध नहीं होता; भक्त तो वहाँ ही रहेगा, जहाँ उसका आराध्य हो ।
१५
जिनेन्द्र के भक्तों में देवियोंका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस ग्रन्थ में पद्मावती, अम्बिका, चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, सच्चियामाता, सरस्वती और कुरुकुल्लाका विवेचन किया गया है। वैसे तो अनेक शासनदेवियाँ और विद्यादेवियाँ हैं, जिनकी पूजा भक्ति होती रही है, किन्तु उनमें उपर्युक्त सातकी विशेष मान्यता है । उनके सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ बने, मन्दिर - मूर्तियोंका निर्माण हुआ और स्तुति स्तवन रचे गये । यहाँ इन सभी दृष्टियोंसे उनपर विचार किया गया है । सच्चियामाता हिन्दुओंकी महिषासुरमर्दिनी थी। वह महिषोंके रुधिर और मांससे ही तृप्त होती थी। एक बार उसे भूख लगी, तो वह श्री रत्नप्रभसूरिजी के पास पहुँची, उन्होंने उसे जैन बना लिया । सूरिजी विक्रमकी १३वीं शताब्दी में हुए थे । अर्थात् महिषासुरमर्दिनी जैन देवि सच्चियामाता के रूपमें विक्रमकी १३वीं शताब्दी से परिणत हुई । उसके पूर्व सच्चियाका अस्तित्व नहीं था । इसी प्रकार कुरुकुल्ला वज्रयानी तान्त्रिक सम्प्रदायकी बौद्ध देवी है । वह सर्पोंकी देवी कहलाती है । एक बार उसने श्री देवसेनसूरिका उपदेश सुना तो जैन बन गयी । श्री सूरिजोका समय १२वीं शतीका अन्त और तेरहवींका प्रारम्भ माना जाता है । अर्थात् कुरुकुल्लाको जैन मान्यता १३वीं शतीसे प्रारम्भ हुई। महापण्डित राहुलने लिखा है, "गया जिलेमें कुरुविहार कुरुकुल्लाविहारका ही परिवर्तित नाम है। आज वहाँके लोग उसे भूल गये हैं । बहुत वर्ष नहीं हुए जब कि वहाँ एक खेत से कला, पुरातत्त्व और मूल्य में भी अत्यन्त महर्घ सैकड़ों मूत्तियाँ मिली थीं, जो आज पटना म्युजियम में रखी हैं ।" देवी सरस्वती की रूपरेखाका निर्वाणकलिका में उल्लेख आया है। यह जैनमन्त्र से सम्बन्धित एक प्रसिद्ध कृति है । इसके रचयिता पादलिप्तसूरि ईसाकी ३री शतीमें हुए हैं । जैन लोग सरस्वतीके भक्त थे । उन्होंने उसे पवित्रताका प्रतीक माना है । उनके भक्ति भाव केवल स्तुति स्तोत्रों में ही नहीं, मनमोहक मूर्तियोंमें भी बिखरे हुए हैं । बप्पभट्टसूरिकी 'सरस्वती - स्तुति' अनुपम है। उन्होंने एक 'सरस्वतीकरूप' भी बनाया था । यह ईसाका ८वी ९वीं शतीका समय था । मध्यकाल में १०वींसे १३वीं शतीतक
f