________________
भूमिका
ज्ञानियोंका लक्ष्य है निर्वाण, उसे भी भक्तिका विषय बनाकर 'निर्वाण-भक्ति' की रचना की गयी । उसमें जैन निर्वाण-भूमियों और तीर्थ-यात्राओं का विवेचन है। जैन तीर्थक्षेत्रोंका विषय 'इतिहास' और 'भूगोल' से सम्बन्धित है । अभी तक उसपर हुई शोध अल्पादपि अल्प कहलायगी । यदि आज कोई 'विविधतीर्थकल्प' के रचयिता श्री जिनप्रभसूरिकी भांति सभी तीर्थक्षेत्रों में जाये, तत्सम्बन्धी पुरातत्वका अध्ययन करें और भण्डारोंमें पड़ी प्राचीन सामग्रीको देखे, तो एक प्रामाणिक ग्रन्थ बन सकता है । उसकी आवश्यकता है ।
१३
नन्दीश्वरद्वीप में स्थित बावन जिन चैत्यालयों और प्रतिमाओंकी पूजा-वन्दना की बात नन्दीश्वर भक्ति में कही गयी है। जैन भूगोलके अनुसार नन्दीश्वर द्वीप आठवां द्वीप है । इसकी समूची रचना अकृत्रिम है । वहीं कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ के अन्तिम आठ दिनों में देव वन्दना करने जाते हैं। जैनोंका आष्टाह्निक पर्व इसीसे सम्बन्धित हैं । यह प्राचीनकालमें मनाया जाता था और आज भी इसका प्रचलन है । नन्दीश्वर द्वीप भौगोलिक खोजका विषय हो सकता है, किन्तु जैन लोग उसकी भक्ति पुरातन कालसे करते आ रहे हैं । प्राकृत संस्कृत निबद्ध उसकी स्तुतियाँ भी उपलब्ध हैं । शान्ति भक्ति में शान्तिकी बात है । सभी शान्ति चाहते हैं, अर्थात् दिल ही दिल में उसका महत्त्व मानते और उसे पानेकी अभिलाषा करते हैं । जैनोंने अपना यह हृदय शान्ति भक्ति के रूपमें प्रकट किया है । शान्ति भक्ति शान्तरसको ही भक्ति है । चोबीस तीर्थङ्कर शान्तरसके प्रतीक माने जाते हैं । किन्तु उनमें भी सोलहवें भगवान् शान्तिनाथकी विशेष ख्याति है । उनकी भक्ति शान्ति भक्ति में शामिल है ।
1
चैत्य शब्द बहुत प्राचीन है। जैन आचार्योंने उसका वृक्ष, सदन, प्रतिमा, आत्मा और मन्दिरके अर्थ में प्रयोग किया है। तोर्थङ्कर के समवशरणमें चैत्यवृक्षोंका महत्वपूर्ण स्थान होता है । उनकी आराधना की जाती है। बौद्ध ग्रन्थोंमें भी 'स्य' शब्दका पवित्र वृक्षोंके अर्थ में प्रयोग हुआ है । ए-ग्रुनवेडलने अपनी 'बुद्धिस्ट आर्ट इन इण्डिया में यह स्पष्ट किया है ( देखिए पृ० २०-२१) । चैत्य शब्दका अधिकांश प्रयोग पूजा-स्थानके अर्थमें हुआ है । पूजा स्थानका अर्थ केवल बिल्डिंग ही नहीं, अर्थात् सदन और मन्दिर ही नहीं, अपितु प्रतिमा, वृक्ष, बिम्ब और अन्य धार्मिक चिह्न भी हैं। जैन आचायने प्रतिमा और बिम्बका एक ही अर्थमें प्रयोग किया है। आचार्य हेमचन्द्रके अनेकार्थ कोषके काण्ड २, श्लोक ३६२ में "चैत्यं जिनौकस्तदुबिम्बं " से यह बात स्पष्ट है । रामायण में भी " हेमबिम्बनमा सौम्या मायेव मद्यनिमिता" के द्वारा बिम्ब और मूर्तिको एक बताया