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जैन-भक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि 'निर्मलः केवल: शुद्धो" कहकर अभिव्यक्त किया है।
णमोकार मन्त्र और उसका महत्त्व . जैनोंका प्रसिद्ध 'णमोकार मन्त्र' पंच परमेष्ठीसे ही सम्बन्धित है। इसमें अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और लोकके सर्व साधुओंको नमस्कार किया गया है।
जैन-परम्परामें णमोकार मंत्र', सृष्टिको भाँति ही अनादि निधन माना जाता है। भगवान् महावीरने १४ पूर्वोकी विद्या, अपने गणधरोंको स्वयं प्रदान की थी। उनमें विद्यानुवादपूर्वका प्रारम्भ णमोकार मंत्रसे ही हुआ था। विद्यानुवाद; मंत्र-विद्याका अपूर्व ग्रन्थ था। श्री मोहनलाल भगवानदास झावेरीने, जैन मंत्रशास्त्रका प्रारम्भ, ईसासे, ८५० वर्ष पूर्व, अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथके समयसे स्वीकार किया है। हो सकता है कि पार्श्वनाथके समयमें भी '१४ पूर्व', 'पहलेसे
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१. निर्मल: केवल: शुद्धो विविक्तः प्रभुरग्ययः ।
परमेष्ठी परमात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ।। आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद, समाधितन्त्र : वीरसेवामन्दिर, सरसावा,
६ठा श्लोक। २. णमो परहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं णमो उवझायाणं, णमो
लोए सब्वसाहूणं । 2. The original doctrine was contained in the fourteen
puvvas ( purvas ) "old texts," which Mahavira himself had taught to his Ganadharas, Dr. Jagdish chandra Jain, Life in Ancient India as depicted in the Jain Canons, New Book Company, Ltd,
Bombay, 1947, p. 32. ४. कहा जाता है कि मुनि सुकुमारसेन ( ७वीं शताब्दी ईसवी ) के विद्या
नुशासनमें, विद्यानुवाइकी बिखरी सामग्रीका संकलन हुआ है। विद्यानुशासनकी हस्तलिखित प्रति जयपुर और अजमेरके शास्त्र भण्डारोंमें
मौजूद है। 4. Mr. Jhaveri thinks that the Mantrasastra among the Jains
is also of hoary antiquity. He claims that its antiquity goes back to the days of Parsvanatha, the 23rd Tirthankara, who flourished about 850 B.C. Dr. A. S. Altekar, Mantrasastra and Jainism, Jain Cultural Research Society, Banaras Hindu University, P. I.