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जैन-भक्तिके भेद
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लिखा है, "अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, मेरी आत्मामें ही प्रकट हो रहे हैं, अतः आत्मा ही मुझे शरण है । " श्री योगीन्दुने भी कहा, "यद्यपि वे सिद्ध परमेष्ठी व्यवहार नयसे लोकके शिखर के ऊपर विराजते हैं, किन्तु शुद्ध निश्चय नयसे वे अपने आत्मस्वरूपमें ही स्थित हैं ।"
परमेष्ठी वह है, जो मलरहित, शरीररहित, अनिन्द्रिय, केवलज्ञानी, विशुद्धात्मा, परमजिन और शिवङ्कर हो । मलरहितका तात्पर्य है -अठारह दोषों से शुद्ध होना । यह परमेष्ठीका सबसे बड़ा गुण है । इसीको आचार्य समन्तभने 'प्रदोषमुक', श्री सिद्धसेनने 'उक्तदोषैर्विवजित: और आचार्य पूज्यपादने '
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१. अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी ।
ते विहु चिट्ठहि आधे तम्हा आद। हु मे सरणं ॥
प्राचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड : श्री पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारौठ, मारवाड़, मोक्ष पाहुड : १०४वीं गाथा ।
२.
ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे अप्पाणि वसंत ।
लोयालो विसयल इहु अच्छहिँ विमलु णियंत ॥
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योगीन्दु, परमात्मप्रकाश : श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, १९३७ ई०, ११५, पृष्ठ ११.
३. मलरहिओ कलचित्तो अणिन्दओ केवलो विसुन्दप्पा | परमेट्ठी परमजिणो सिङ्करो सासओ सिद्धो ॥
श्राचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड : श्री पाटनी दि० जैन मारवाड़, मोक्ष पाहुड : ६ठी गाथा ।
ग्रन्थमाला, मारौठ,
४. क्षुधा, तृषा, जरा, रोग, जन्म, मरण, भय, मद, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, स्वेद और खेद ।
आचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र : पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पा
दित, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, १९५५ ई०, ११६, पृ० ३९ ।
५. क्षुत्पिपासा-जरातंक -जन्मान्तक भय-स्मयाः ।
न राग-द्वेष- मोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते प्रदोषमुक् ॥ देखिए वही : १६, पृ० ३९. ।
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६. आचार्य सिद्धसेन, द्वात्रिंशिकास्तोत्र : भवचूरिलसहित श्री उदयसागरसूरि सम्पादित, गुजराती व्याख्या युक्त, जैनधर्म प्रसारक समा, भावनगर, १९०३ ई०, देखिए स्वयम्भूस्तुति ।