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[८०] अब हम यहां पर यह बता देना चाहते हैं कि जो वस्त्र-त्याग के सम्बन्ध में भगवान कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है वही कथन सभी दिगम्बराचार्यों ने कहा है वही सब कुछ शास्त्रों में पाया जाता है। जो वन-त्याग का सिद्धान्त भगवान कुन्दकुन्द ने कहा है वही दिगम्बर जैन धर्म का मोक्षप्रदायक मूल सिद्धान्त है अथवा जो दिगम्बर जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है वही भगवान कुन्दकुन्द ने कहा है। भगवान कुन्दकुन्द का सिद्धान्त ही समस्त आचार्य और समस्त शास्त्रों का कथन है। किसी भी दिगम्बर जैनाचार्य के मत से सवस्त्र संयम एवं सबस्न मुक्ति सिद्ध नहीं हो सकती है।
दिगम्बर जैनधर्म में जिस प्रकार श्रावक का स्वरूप बिना अष्ट मूल गुण के नहीं बन सकता उसी प्रकार मुनि का स्वरूप भी बिना अट्ठाईस मूल गुणों के नहीं बन सकता है। अट्ठाईस मूल गुणों में नमता प्रधान गुण है। और वह अवश्यम्भावी अनिवार्य गुण है। उसके बिना मुनिपद ही नहीं रह सकता है। यहां तक शास्त्रों में बताया गया है कि प्रमादादि कारणों से पुलाक जाति के मुनियों के कभी कदाचित् इन मूल गुणों में भी किसी गुण की विराधना हो सकती है परन्तु नमत्व गुण की विराधना नहीं हो सकती। जहां उसकी विराधना होगी वहां फिर मुनिपद ही नहीं रहेगा। इस कथन से यह बात स्पष्ट सिद्ध है कि दिगम्बर जैन सिद्धान्तानुसार साधु का स्वरूप बिना सर्वथा वस्त्र-त्याग किये नहीं बन