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[७]] हो पाता है, किन्तु वहां तक वह उत्कृष्ट श्रावक ही कहलाता है।
वस्त्रों के विषय में श्री शुभचन्द्राचार्य ने एक श्लोक में ही बहुत कुछ खुलासा कर दिया है। वे लिखते हैं
म्लाने क्षालयतः कुतः कृतजलाधारंभतः संयमः, नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् । कौपीनेपि हृते परैश्च झटिति क्रोधः समुत्पद्यते, तन्नित्यं शुचि रागहत शमवतां वस्त्रं ककुमण्डलम् ॥
अर्थात-यदि मुनि कपड़ा रखने लगे तो अनेक प्रकार की आकुलताएं उसके चित्त में चंचलता पैदा करती रहेंगी जैसे वस्त्र यदि मैला हो जाय तो धोना पड़ेगा, उसके लिये जल का प्रारम्भ करना पड़ेगा। प्रारम्भ करने से जीव-हिंसा होगी, संयम नष्ट हो जायगा। यदि वा नष्ट हो जाय तो चित्त में क्षोभ होगा, फिर दूसरे वस्त्र की चिन्ता होगी। श्रावकों से याचना करनी पड़ेगी। यदि कोई लंगोटो भी उठा ले जाय तो झट क्रोध उत्पन्न हो जायगा। चूहे काट डालें तो भी चित्त में खेद होगा। उस लंगोटीकी सम्हाल, रक्षा
आदि सब बातों की चिन्ता करनी पड़ेगी। ऐसी दशा में कहां निराकुलता, कहां संयम, कहां वीतरागता; सब बातें नष्ट हो जाती हैं। इस लिये साधु का जैसा निवृत्ति मार्ग है उसके लिये दिशारूपी वस्त्र ही (दिगम्बर नग्न रूप ही) उपर्युक्त सब आकुलताओं को एवं रागभाव को हटाने वाला है।
यह सब कथन कितना सुन्दर एवं युक्तिपूर्ण है। अस्तु ।