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[८१] संकता है। इस लिये दिगम्बर जैनधर्म में वख सहित अवस्था में संयम भाव, साधुपद, वीतरागता एवं मोक्ष प्राप्ति सर्वथा असम्भव है। साधुके अट्ठाईस मूल गुणों में अचेलक (वरूरहित ) का स्वरूप प्राचार्य बट्टकेर म्वाभी ने इस प्रकार
वत्थाजिण वक्केणय अहवा पत्तादिणा असंवरणं । णिभूसण णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदिपूज्जं ॥
(मूलाचार पृष्ठ १३) अर्थ-कपाम, रेशम, रोम के बने हुए वस्त्र मृगछाला आदि चर्म, वृक्षादि की छाल, सन, टाट अथवा पत्ता, तृण आदि से शरीर को नहीं ढकना, कोई आभूषण नहीं पहनना, संयम के विनाशक किसी भी परिग्रह को धारण नहीं करना ऐसा वस्त्राभूषण श्रादि सबों से रहित अचेलक ब्रत (नमता) है। यह वीतराग नमता तीनों लोक के जीवों से पूज्य है। परम विशुद्धता का साधक है। इस नप्रगुण से साधु पूर्ण ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहता है, सिंहवृचि से रहवा है, नम गुण के कारण प्रारम्भ, परिग्रह हिंसा, प्रक्षालन दोष, याचना दोष आदि कोई भी दोष नहीं होता है।
और भी निर्मन्थ साधुओं के विषय में प्राचार्य बट्टकेर स्वामी ने स्पष्ट लिखा है। यथालिंगं वदं च सुदी।
(माचार पृष्ठ ३७)