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। ७५] प्राप्ति के सम्बन्ध में श्री कुन्दकुन्दाचार्यका मत प्रगट करते हैं
निच्चेल पाणिपत्तं उबइ8 परम जिरणवरिदेहिं । एकोवि मोक्खमग्गो सेसाय अमगया सव्वे ।। बालग्ग कोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णगणं इक्कटाणम्मि ॥ जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं न गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्प बहुयं तत्तो पुण जाइ रिणग्गोद ।। जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स । सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिरो निरायारो॥ पंचमहञ्चयजुत्तो तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होदि ।
हिमगंध मोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जोय ।। णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ विहोइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्ख मग्गो सेसा उम्मम्गया सव्वे ।।
(भगवत्कुंदकुंदाचार्यः षट् प्राभृतादिसंग्रह) अर्थ-मुनि वस्त्र रहित ही होते हैं और वे पाणिपात्र में ही भोजन करते हैं ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने बताया है। मोक्षमार्ग एक निर्ग्रन्थ लक्षण स्वरूप ही है। अर्थात नग्न दिगम्बर स्वरूप ही मोक्षमार्ग है। बाकी के सब मत संसार के ही कारण हैं।
बाल के अग्रभाग बराबर भी वस्त्रादि परिग्रह का प्रहण दिगम्बर साधुओं के नहीं होता है। और एक स्थान में दूसरों से दिया हुआ थाहार अपने हाथ में लेकर ही वे ग्रहण