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[ ७६ ] करते हैं। यथाजात रूप सर्वज्ञ वीतराग भगवान हैं, उन्हीं के समान दिगम्बर मुनि सर्वदा नग्न रहते हैं। बालकके समान भी नग्न कह सकते हैं। परन्तु नग्न रहने पर भी बालक वीतराग नहीं है। इस लिये वीतराग सर्वज्ञ भगवान के समान नग्न मुनियों को कहा गया है। वे अपने हाथों में तिल तुष पात्र परिग्रह भी ग्रहण नहीं कर सकते हैं यदि थोड़ा भी ग्रहण कर लेवें तो निगोद के पात्र बन जाते हैं। ... श्वेताम्बरादि मतों का खण्डन करते हुए भगवान कुन्दकुन्द कहते हैं कि जिसके यहां थोड़ा बहुत परिग्रह का ग्रहण बताया गया है वह वेष महावीर भगवान के दिगम्बर शासन में निन्दनीय है। क्योंकि परिग्रह रहित ही अनगार मुनि होता है।
संयमी का लक्षण बताते हुए भगवान कुन्दकुन्द कहते है कि जो पंच महाव्रतों से सहित है, तीन गुप्तियों को धारण करता है वही संयमी कहलाता है। ऐसा निम्रन्थ नम वीतराग मुनि ही वन्दनीय है। क्योंकि मोक्षमार्ग निर्ग्रन्थ ही होता है। इसी गाथा की संस्कृत टीका में श्रीमत् श्रुत-सागराचार्य लिखते हैं
___“यः सग्रन्थमोक्षमार्ग मन्यते स मिथ्यादृष्टि नाभासश्वावन्दनीयो भवति।"
___अर्थात्-जो परिग्रह सहित मोक्षमार्ग को मानता है वह मिथ्यादृष्टि और जैनाभास है, वह कभी वन्दनीय नहीं