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________________ [ ५३ ] सहः स्त्रीष्वनुत्पत्तिः पृथिवीष्वपि षदश्वधः । त्रिषु देवनिकायेषु नीचे अन्येषु वांम्बिके || fafगदं स्त्रैणमश्लाघ्यं नैर्मन्ध्यप्रतिबंधि यत् । कारीषाद्मिनिभं तापं निराहुस्तत्र तद्विदः || तदेतत् स्त्रैणमुत्सृज्य सम्यगाराध्य दर्शनम् । प्रातासि परमस्थान सप्तकं त्व-मनुक्रमात् ॥ ( श्री आदिपुराण पर्व ६ पृष्ठ ३१६ ) इन श्लोकों की हिन्दी टीका जो श्रीमान धर्मरत्न विद्वद्वर्य पं० लालाराम जी शास्त्री महोदय ने की है यह है “हे मातः ! सम्यग्दृष्टि जीव स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होता है तथा दूसरे से सातवें तक नीचे के छह नरकों में, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क इन दोनों प्रकारोंके देवों में और एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय आदि अन्य नीच कुलों में भी कभी उत्पन्न नहीं होता है । इस निन्द्य स्त्री पर्याय को धिक्कार हो । यह स्त्री - पर्याय निर्मन्थ मुनियों का धर्म पालन करने के लिये प्रतिबन्धक है और इस पर्याय में विद्वानों ने कारीष जाति की अभि के ( सूखे गोबर की अनि के ) समान तीव्र काम का सन्ताप निरूपण किया है 1 हे मात ! अब तू सम्यग्दर्शन का आराधन कर और इस निन्द्य स्त्री पर्याय को छोड़कर अनुक्रम से उत्कृष्ट जाति श्रावक के व्रत, यति के व्रत, इन्द्रपद, चावर्तीका पद, केवलज्ञान और निर्वाण इन सातों परम स्थानों को प्राप्त होगी ।"
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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