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________________ [ ६२ ] पहली बात जो वे कहते हैं कि "यदि वैषम्य हो सकता है तो वेद के द्रव्य और भाववेद का तात्पर्य ही क्या रहा ?" तात्पर्य यही है कि एक द्रव्यवेद में अनेक भाववेद उदय में सकते हैं। इसी का नाम वैषम्य है और यह बात आगम से सिद्ध है। यह तो हम ऊपर धवलसिद्धान्त शास्त्र और गोम्मटसारादि शास्त्रों से बहुत खुलासा कर चुके हैं। इसके सिवा इस द्रव्य और भाववेद के वैषम्य का परिज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव से भी सर्व श्रबाल - गोपाल प्रसिद्ध है । अनेक पुरुष, स्त्रियों के वेष-भूषा तथा चाल-ढाल आदि कियायें करते हुए देखे जाते हैं। अनेक स्त्रियां भी पुरुषों के समान वेश-भूषा और छात्रभाव बनाती हुई पाई जाती हैं। यह सब क्या है ? द्रव्यवेद और भाववेद का ज्वलंत प्रत्यक्ष दृष्टान्त है । प्रो० सा० को विदित होना चाहिये कि इन भाववेदों के संस्कार - जनित वासनाओं के कारण असंख्यात भेद हो जाते हैं। महर्षियों ने संसारी जीवों की इन सब बातों को अपने दिव्य ज्ञान से अवधि एवं मनः- पर्यय ज्ञान से प्रत्यक्ष भी किया है, तभी ग्रन्थों में लिखा है और पूर्वाचार्यों के कथन का ही अनुसरण किया है। जिन आचार्यप्रवर नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रन्थों में कर्मों का उदय सत्व, बन्ध, उद्वेलन, संक्रमण, भागद्वार, त्रिभंगी, कूट रचना आदि के द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म एवं जटिल गम्भीर कर्म की गुत्थियों को सुलझाया है, वे कर्म - सिद्धान्त के
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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