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[ ३] कितने मर्मज्ञ थे यह बात क्या हम लोगों से वर्णनीय है ? बड़े बड़े महर्षिगण उसका महत्व बताते हैं।
इसके आगे और भी विचित्र बात उन्होंने लिखी है। वे लिखते हैं कि
"किसी भी उपांग विशेष को पुरुष या स्त्री कहा ही क्यों जाय ?"
इस पंक्ति से उनका तात्पर्य यह है कि यदि पुरुष और स्त्री संज्ञा, भाववेद की अपेक्षा से ही लेते हो तो फिर स्त्रियों में चिन्ह विशेष (उपांग ) द्वारा जो उनका नाम लिया जाता है वह व्यर्थ है ?
इसके उत्तर में उन्हें समझ लेना चाहिये कि गुणस्थान-चर्चा में भाववेदकी अपेक्षा कथन है और द्रव्य की अपेक्षा स्त्री-पुरुष संज्ञा उपांग की पहचान से ही रक्खी जाती है।
यदि चिन्ह विशेष के देखते हुए भी किसी को पुरुष या स्त्री नहीं कहा जाय तो फिर स्त्री पुरुष का क्या तो लक्षण होगा ? और किस नाम से उनका व्यवहार होगा? और स्त्री-पुरुष ये नाम और व्यवहार ही तो सृष्टि का मूलभूत हैं। इस सम्बन्ध में अधिक लिखना अनुपयोगी है। उत्तर पर्याप्त है। आगे वे लिखते हैं कि
"अपने विशेष उपांग के बिना अमुक वेद उदय में आवेगा ही किस प्रकार ? यदि आ सकता है तो इसी