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[ ६१ ] के कोई लिंग नहीं होता तो यह बात कर्म-सिद्धान्त से सर्वथा कावित है, कर्म-सिद्धान्त के अनुसार वृक्ष-वनस्पति आदि एकेंद्रिय जीवों के अनन्तानुबन्धी कपाय एवं नपुंसकवेद नोकषाय का बन्ध उदय सत्व बताया गया है। यदि वे उन जी के भाववेदका उदय स्वीकार करते हैं तो उन्हें उनके द्रव्य वेद भी स्वीकार करना आवश्यक होगा। जब कि स्त्रीवेदपुरुषवेद दो ही वेद वे स्वीकार करते हैं तो वृक्ष-वनस्पतियों में उनका बाह्य चिन्ह बतावें क्या है ? शास्त्राधार से द्रव्यनपुंसक लिंग के तो स्त्री पुरुष दोनों के बाह्य चिन्हों से रहित अनेक चिन्ह बताये गये हैं। उनमें देह रूप भी चिन्ह है वही एकेन्द्रिय के होता है। जैसा कि गोम्मटसार की वेदमार्गणा की गाथाओं से स्पष्ट है।
हमने ऊपर आचार्य नेमिचन्द्र-सिद्धान्त चक्रवर्ती की गाथाओं का प्रमाण दिया है परन्तु प्रो० सा. नपुसकवेद का अभाव बताकर उससे सर्वथा विपरीत और प्रत्यक्ष-बाधित बात कह रहे हैं तब उक्त सिद्धांत-चक्रवर्ती आचार्य भी भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के समान उनकी समझ में कर्म-सिद्धान्त के जानकार और व्यवस्थित-विवेचक नहीं ठहरे होंगे। हम पूछते हैं वैसा दिव्य गूढ़ तथा आगम एवं प्रत्यक्ष-विरुद्ध कर्मसिद्धान्त का रहस्य उन्होंने कौनसे शास्त्रों से जाना है ? सो तो प्रगट करें।
अब उनकी दो बातों का उत्तर भी इस प्रकार है