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देव - नारकी, भोग- भूमिया तथा संमूक्रेन जीव इनका जो द्रव्यवेद होता है वही भाववेद होता है। किन्तु मनुष्य तिर्यञ्चों में समता तथा विषमता है 1
इस कथन से भी नपुंसक वेद और वेदों की विषमता दोनों बातें सिद्ध होती हैं ।
प्रो० सा० नपुंसकवेद नहीं मानते हैं । स्त्री और पुरुष में दो ही वेद मानते हैं । तब क्या संमूनों की उत्पत्ति वे गर्भ से समझते होंगे ? क्योंकि मनुष्य तिर्यश्नों में जो स्त्री पुरुष - वेदी होते हैं, उनकी उत्पत्ति गर्भ से ही होती है। संमूर्धन भी मनुष्य तियेवों में ही होते हैं। फिर तो समूछेन जन्म भी उनके मत से नहीं बनेगा ? शास्त्रकारों ने एकेंद्रिय से चौइन्द्री तक के जीवों को संमूर्च्छन ही बताया है। पंचेन्द्रियों में तीनों जन्म वाले होते हैं। यह भी देखा जाता है कि दोइन्द्रिय आदि जीव बेसन- छाछ आदि के योगसे तत्काल उत्पन्न हो जाते हैं । यदि वे जीव स्त्री-पुरुषवेदी माने जावें तो फिर उनकी उत्पत्ति बेसन- छाछ आदि के संयोग से नहीं होनी चाहिये किन्तु गर्भ से ही होनी चाहिये । इन बातों का उत्तर प्रो० सा० क्या देंगे ?
इसके सिवा वृक्ष आदि बनस्पतियों में प्रो० सा० को स्त्री वेद, पुरुषवेद का कोई चिन्ह प्रतीत होता है क्या ? होता हो तो वे प्रगट करें ? नहीं तो उन्हें नपुंसकवेद का अस्तित्व स्वीकार करना ही पड़ेगा । यदि वे यह कहें कि वृक्ष वनस्पति