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[५६ ] के भट्टा में पकती हुई ईट की अग्नि के समान तीव्र कषाय होती है। उसका चित्त सदैव कलुषित रहता है। पुरुष स्त्री
और नपुंसक तीनों को कामग्नि का तरतम भाव शास्त्रकारों ने क्रम से तृण की अग्नि, कण्डे की अग्नि और ईंट के भट्टे की अग्नि के समान बताया है।
इस कथन से और उसी के अनुसार प्रत्यक्षमें हीजड़ों के देखने से जब नपुसक द्रव्यवेदी मनुष्य पाये जाते हैं। तब 'दो ही वेद हैं, तीसरा वेद कोई नहीं हो सकता है, उसके तीन भेद भी नहीं बन सकते' आदि बातें प्रो० सा० की अनोखी सूझ मालूम होती है। क्या उन्होंने कर्म-सिद्धान्त को इसी रूप में समझा है और इसी गहरी सूझ और खोज के आधार पर ही वे भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य को कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान-चर्चा का जानकार एवं व्यवस्थित-विवेचक नहीं समझते हैं ? नपुंसकवेद नहीं मानने से संमूर्छन-जन्म भी
सिद्ध नहीं होगा णेरइया खलु संढा णरतिरिये तिषिण होंति सम्मुच्छा। संढा सुरभोगभुमा पुरुसिच्छी वेदगा चेव ॥
(गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६३) इस गाथा के अनुसार नारकी सभी नपुंसक लिंग वाले ही होते हैं, मनुष्य तिर्यञ्चों में तीनों वेद होते हैं, संमूर्छन जीव सभी नपुंसक लिंगी ही होते हैं। तथा देव और भोगभूमि के जीव पुरुषवेदी और स्त्रीवेदी ही होते हैं। अर्थात्