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________________ [ ५२ ] वस्था में किसकी तो व्युच्छित्ति मानी जाय और क्या अप सोचें और विचार गत - वेद माना जाय ? सो तो प्रो० सा० करें । आगम जिस बात का स्पष्ट रूप से बाधक है उस बात को बिना किसी आधार और युक्तिवाद के लिखना प्रयुक्त है। स्त्री-मुक्ति के सम्बन्ध में प्रो० सा० ने जो दिगम्बर जैन शास्त्रों के प्रमाण दिये हैं, उन सब प्रमाणों का खंडन उन्हीं शास्त्रों से हम ऊपर अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। अब स्त्री-मुक्ति के सम्बन्ध में जो उन्होंने अपने अनुभव के अनुसार दृष्टान्त एवं युक्तियां दी हैं उनपर भी हम यहां विचार करते हैं । प्रो० सा० की युक्ति और दृष्टान्त इस प्रकार है "कर्म सिद्धान्त के अनुसार वेद-वैषम्य सिद्ध नहीं होता । भिन्न इन्द्रिय सम्बन्धी उपांगों की उत्पत्ति का यह नियम बतलाया गया है कि जीव के जिस प्रकार के इन्द्रिय ज्ञान का क्षयोपशम होगा उसी के अनुकूल वह पुद्गल रचना करके उसको उदय में लाने योग्य उपांग की प्राप्ति करेगा । चक्षुरिन्द्रिय आवरण के क्षयोपशम से करणं - इन्द्रियकी उत्पत्ति कदापि नहीं होती और न कभी उसके द्वारा रूप का ज्ञान हो सकेगा। इसी प्रकार जीव में जिस वेद का बन्ध होगा उसी के अनुसार वह पुद्गल - रचना करेगा और तदनुकूल ही उपांग उत्पन्न होगा । यदि ऐसा न हुआ तो वह वेद ही उदय में नहीं आ सकेगा। इसी कारण तो जीवन भर वेद बदल
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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