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________________ [५३ ] नहीं सकता। यदि किसी भी उपांग सहित कोई भी वेद उदय में आ सकता तो कषायों व अन्य नो कषायों के समान वेद के भी जीवन में बदलने में कौनसी आपत्ति आ सकती है।" प्रो० सा० ने जो वेदों की विषमता का निषेध बताने में इन्द्रियों का दृष्टान्त दिया है वह आगम, हेतु और प्रत्यक्ष तीनों बातों से विरुद्ध है। इसमें पहली बात तो यह है कि एक ही जीवके पांचों द्रव्येन्द्रियां तो भिन्न २ होती हैं, परन्तु वेदोंकी पौगलिक रचना एक जीव के भिन्न २ तीन संख्या में नहीं है एक जीव के शरीर में द्रव्यवेद एक ही होता है, इस लिये द्रव्येन्द्रिय की रचना में इन्द्रियों की और वेदों की कोई समता नहीं आती है। इसी प्रकार भावेन्द्रियों में और भाववेदों में भी समता नहीं है। क्योंकि ज्ञानावरण की उत्तरप्रकृतियों में मतिज्ञानावरण आदि पांच भेद बताये गये हैं और पांचों भावेन्द्रियां मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम में ही गर्भित हो जाती हैं। परन्तु चारित्र मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों में तीनों भाववेदों का उल्लेख जुदा २ किया गया है, इस लिये इन्द्रियों और वेदों में द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से विरुद्ध रचनायें हैं। यदि द्रव्येन्द्रियां जैसे एक शरीर में पांचों बनी हुई हैं, वैसे यदि एक शरीर में द्रव्यवेद भी तीनों होते तो समता आ सकती थी परन्तु वैसी समता तो नहीं है। इस लिये इन्द्रियों में तो यह बात है कि जैसा बाह्य निमित्त उपयोग के लिये मिलता है वही नाम और वैसा उप
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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