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[५१ ] अर्थात् - अनिवृत्तिकरण-नवमें गुणस्थान के सवेद और अवेद भागों में क्रम से पुरुषवेदादि तीन तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया ये तीन ऐसी छह प्रकृतियां उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं।
इन सत्वव्युच्छित्ति और उदयव्युच्छित्ति के कथन से यह बात स्पष्ट होती है कि स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और पुरुषवेद इन तीनों भाववेदोंका सद्भाव उदय और सत्व दोनों अपेक्षाओं से नवमें गुणस्थान तक रहता है। ऐसी अवस्था में प्रो० सा० का यह कहना कि वेद पाठ गुणस्थान तक ही रहते हैं, उससे ऊपर वेद नहीं रहता है, सर्वथा पागम विरुद्ध है।
इस उदय और सत्व व्युच्छित्ति के कथन से भी प्रो० सा० की इस बात का खण्डन हो जाता है कि आठवें, नवमें गुणस्थानों में जहां स्त्रीवेद का उल्लेख है वहां द्रव्यस्त्री से प्रयोजन है। यदि इन आठवें, नवमें गुणस्थानों में स्त्रीवेदसे द्रव्यस्त्री का ग्रहण किया जाय तो फिर नौवें गुणस्थान में इन तीनों वेदों की सत्वव्युच्छित्ति और उदयव्युच्छित्ति कैसे बताई गई है ? जब व्युच्छित्ति हो जाती है तब आगे के दशवें आदि गुणस्थानों में अपगत-वेद कहलाता है। प्रो० सा० के कहने के अनुसार यदि द्रव्यत्री मानी जाय तो द्रव्यवेद तो चौदहवें गुणस्थानतक वहां तक ठहरता है जहां तक कि शरीर ठहरता है। द्रव्यवेद शरीर-रचना से जुदा तो नहीं है फिर उस की व्युच्छिचि तो हो ही नहीं सकती। वैसी