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[४] इसके आगे नं०२ में एक स्वतन्त्र पंक्ति लिखकर प्रो० सा० ने यह बताया है कि वेद आठ वें गुणस्थान तक ही रहता है, ऊपर नहीं। उनकी पंक्ति यह है
"जहां वेदमात्र की विवक्षा से कथन किया गया है वहां ८ वे गुणस्थान तक का ही कथन किया गया है, क्योंकि उससे ऊपर वेद रहता ही नहीं है।"
हमें इस पंक्ति को पढ़कर आश्चर्य होता है कि प्रो० सा० ने यह पंक्ति क्या समझकर लिखी है। जब कि वे स्वयं लिखते हैं कि द्रव्यपुरुष के समान द्रव्यस्त्री के भी चौदह गुणस्थान होते हैं। तब ८ वें गुणस्थान तक ही वेद रहता है, आगे वेद रहता ही नहीं, ऐसा उनका लिखना स्ववचनबाधित हो जाता है। यदि वे भाववेद की दृष्टि से कहते हैं तो भी उनका कहना आगम से विपरीत पड़ता है। सर्वार्थ-सिद्धि, गोम्मटसार, पट्खण्डागम-धवल श्रादि सभी शास्त्रों में भाववेदों का सद्भाव ६ वेंगुणस्थान तक स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है, इस बात की सिद्धि के लिये हम केवल दो प्रमाण ही देना पर्याप्त समझते हैं। यथा
इथिवेदा पुरिसवेदा असएिणमिच्छाइटिप्पहुदि जाव अणियट्टित्ति । णवुसयवेदा एयिंदियप्पहुदि जाव अणियट्टित्ति।
(पट्खण्डागम सिद्धान्त शास्त्र, सत्प्ररूपणा पृष्ठ ३४२३४३ सूत्र १०२-१०३)
अर्थ-स्त्रीवेद और पुरुषवेद वाले जीव असंज्ञी