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________________ [ ४७ ] के बिना ग्यारह योग कहे गये हैं। योग आलाप के आगे स्त्रीवेद तथा अपगत- वेदस्थान भी होता है। यहां भाववेद से प्रयोजन है, द्रव्यवेद से नहीं । इसका कारण यह है कि यदि यहां द्रव्यवेद से प्रयोजन होता तो अपगतवेद रूप स्थान नहीं बन सकता था । ऊपर लिखा हुआ यह हिन्दी अर्थ स्वयं प्रो० सा० ने किया है | धवला टीकाकी पंक्तियां ऊपर दी गई हैं । इस अर्थ से सभी बातें खुलासा हो जाती हैं एक तो यह कि 'जिसके द्रव्यवेद पुरुषवेद होता है, उसके भाववेद स्त्रीवेद आदि भी होते हैं' इससे प्रो० सा० का यह कहना मिथ्या ठहरता है कि जो द्रव्यवेद होता है वही भाववेद होता है । दूसरे इस उपर्युक्त कथन से यह बात स्पष्ट शब्दों में खुलासा हो जाती है कि जो द्रव्यवेद पुरुष होगा वही भाववेद स्त्रीवेद होने पर भी संयम प्राप्त कर सकता है। जो द्रव्यवेद स्त्रीवेद होगा वह जीव संयम भाव प्राप्त नहीं कर सकता है । उसका कारण यही बताया है कि द्रव्यस्त्री सवस्त्र रहती है और सवस्त्रावस्था में संयम भाव कभी नहीं हो सकता है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य स्त्रीवेदी छठा गुणस्थान भी प्राप्त नहीं कर सकती। आगे के गुणस्थान तो नितान्त असंभव हैं । एक बात यह भी बड़े महत्व और चोज की कही गई "है कि जिस प्रकार द्रव्य पुरुष- वेद वाले के चौदह गुणस्थान होते हैं वैसे यदि द्रव्य- स्त्री वेदी और द्रव्य नपुंसक वेदी के भी
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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