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यही बात लिखी है, यथा
" जेसिं भावो इत्थवेदो दव्वं पुरण पुरिसवेदो तेवि जीवा संजम पडिवज्जति । दव्वित्थिवेदा संजमं ण पडिवज्जति सचेत्तादो | भावित्थिवेदाणं दव्वेण पुवेदापि संजदारां गाहाररिद्धी समुप्पजदि । दव्त्रभावेहि पुरिसवेदारणमेव समुपजदि । तेरिणत्थि वेदेपि णिरुद्ध आहारदुगं रात्थि ते एगारह जोगा भणिया । इत्थिवेदो श्रवगदवेदोवि अस्थि, एत्थ भाववेदे पदं, दव्त्र वेदेण । किं कारणं ? अवगदवेदोवि अस्थि तिवरणादो।”
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( षट्खण्डागम, धवलटीका, सत्प्ररूपणा पृष्ठ ५१३ ) इन पंक्तियों का अर्थ षट्खण्डागम की हिन्दी टीका में निम्न प्रकार है, वे पंक्तियां भी हम ज्यों की त्यों रख देते हैं पाठक ध्यान से पढ़ लेवें
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" यद्यपि जिनके भाव की अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेद होता है वे ( भावस्त्री) जीव भी संयम को प्राप्त होते हैं, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा स्त्रीवेद वाले जीव संयम को नहीं प्राप्त होते हैं। क्योंकि वे सचेल अर्थात् वस्त्र सहित होते हैं । फिर भी भाव की अपेक्षा स्त्रीवेदी और द्रव्य की अपेक्षा पुरुषवेदी संयमधारी जीवों के आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है, किन्तु द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदों की अपेक्षा से पुरुषवेद वाले जीवों के ही आहारक ऋद्धि उत्पन्न होती है । इस लिये स्त्रीवेद वाले मनुष्यों के आहारक ऋद्धि